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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 705
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ए꣢ह्यू꣣ षु꣡ ब्रवा꣢꣯णि꣣ ते꣡ऽग्न꣢ इ꣣त्थे꣡त꣢रा꣣ गि꣡रः꣢ । ए꣣भि꣡र्व꣢र्धास꣣ इ꣡न्दु꣢भिः ॥७०५॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । इ꣣हि । ऊ । सु꣢ । ब्र꣡वा꣢꣯णि । ते꣣ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । इ꣣त्था꣢ । इ꣡त꣢꣯राः । गि꣡रः꣢꣯ । ए꣣भिः꣢ । व꣣र्द्धासे । इ꣡न्दु꣢꣯भिः ॥७०५॥


स्वर रहित मन्त्र

एह्यू षु ब्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिरः । एभिर्वर्धास इन्दुभिः ॥७०५॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । इहि । ऊ । सु । ब्रवाणि । ते । अग्ने । इत्था । इतराः । गिरः । एभिः । वर्द्धासे । इन्दुभिः ॥७०५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 705
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि ‘साकमश्वः' है। इसका अर्थ है 'साकम् अश्वाः यस्य'=साथ हैं घोड़े जिसके, अर्थात् जिसके इन्द्रियरूप घोड़े इधर-उधर विषयों में भटक नहीं रहे । इन्द्रियग्राम को संयम करके जो समाहित चित्तवृत्तिवाला बना है वह प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे अने-आगे लेचलनेवाले प्रभो! (एहि) = आइए (ते) = आपके सम्पर्क में (इतरा गिरः) = सामान्य वाणियों को भी (इत्था) = सत्यरूप में (सु ब्रवाणि) = उत्तम प्रकार से बोलूँ, उपहास में भी मैं असत्य न बोलूँ। (एभिः) = ऐसे दृढ़ सत्यव्रती (इन्दुभिः) = शक्तिशाली पुरुषों से ही (वर्धासे) = हे प्रभो! आपकी महिमा बढ़ती है, उपहास में भी असत्य न बोलनेवाले इन व्यक्तियों की वाणी में इतना बल आ जाता है कि (‘वाचमर्थोऽनुवर्त्तते') = इनकी वाणी के पीछे अर्थ चलता है। (‘सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्') = सत्य में प्रतिष्ठित होने पर इनकी सब क्रियाएँ सफल होती हैं । ये जो कहते हैं वही हो जाता है । इनमें प्रभु की शक्ति कार्य करती प्रतीत होती है और इस प्रकार इनके जीवन कार्यों से प्रभु की महिमा फैलती है । 

भावार्थ -

हम उपहास में भी असत्य न बोलें।

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