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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 731
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

अ꣣भि꣡ त्वा꣢ वृषभा सु꣣ते꣢ सु꣣त꣡ꣳ सृ꣢जामि पी꣣त꣡ये꣢ । तृ꣣म्पा꣡ व्य꣢श्नुही꣣ म꣡द꣢म् ॥७३१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । वृषभ । सुते꣢ । सु꣣त꣢म् । सृ꣣जामि । पीत꣡ये꣢ । तृ꣣म्प꣢ । वि । अ꣣श्नुहि । म꣡दम्꣢꣯ ॥७३१॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि त्वा वृषभा सुते सुतꣳ सृजामि पीतये । तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥७३१॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । त्वा । वृषभ । सुते । सुतम् । सृजामि । पीतये । तृम्प । वि । अश्नुहि । मदम् ॥७३१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 731
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

त्रिशोक ऋषि वह है जो मस्तिष्क, मन व शरीर तीनों को ही [त्रि] दीप्त [शोक- शुच दीप्तौ] बनाता है। यह प्रभु से कहता है कि हे (वृषभ) = सब सुखों की - उत्तम पदार्थों की वर्षा करनेवाले प्रभो ! (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में (त्वा अभि) = मैं प्रत्येक कार्य करने से पूर्व आपको देखता हूँ। I Look up to You. आपकी स्वीकृति होने पर ही कार्य करता हूँ ।

१. मेरा मुख्य कार्य तो यह है कि मैं (पीतये) = रक्षा के लिए (सुतम्) = ज्ञान को (सृजामि) = उत्पन्न करता हूँ । जैसे कोई व्यक्ति किसी भी फल से रस को निकालता है, वह रस 'सुत' कहलाता है; इसी प्रकार ‘प्रणिपात, परिप्रश्न व सेवा' के द्वारा इस ज्ञान का भी सेवन हुआ करता है । ज्ञान आचार्य से शिष्य की ओर प्रवाहित होता है । इस सारी भावना को व्यक्त करने के लिए ही ज्ञान को 'सुत' कहा गया है। यह उत्पन्न ज्ञान मस्तिष्क को दीप्त करता है । यह वह ललाट-नेत्र होता है, जिसकी ज्योति में काम आदि वासनाओं का अन्धकार नष्ट हो जाता है।

। २. त्रिशोक अपने मन से कहता है कि (तृम्प) = तू तृप्त रह । तू सदा एक तृप्ति का मनुभव कर । मन में सन्तोष हो । असन्तोष मन को भटकाता है— मेरा मन भटके नहीं। ‘आत्मतृप्ति' महान् साधना है इसके होने पर मन निर्मल व प्रसादयुक्त होता है और मनुष्य के सब दुःखों की हानि हो जाती है। 

३. (व्यश्नुहि मदम्) = यह त्रिशोक अपने प्राणमयकोश से कहता है कि तू मद से व्याप्त हो । [अश्=व्याप्तौ] वीर्य की सुरक्षा वैदिक साहित्य में 'इन्द्र का सोमपान' कहलाती है और यह एक अद्भुत मद पैदा करती है । इसके जीवन में एक मस्ती आ जाती है ।

एवं, यह त्रिशोक अपने सूक्ष्म शरीर के तीनों कोशों को क्रमशः ज्ञान, सन्तोष व उत्कृष्ट मद से भरकर, तीन दीप्तियोंवाला होकर 'त्रिशोक' इस नाम को अन्वर्थक बनाता है । 

भावार्थ -

मस्तिष्क, मन व प्राण को ज्ञान, सन्तोष व मद से पूर्ण करके हम 'त्रिशोक' बनें ।

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