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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 74
ऋषिः - वत्सप्रिर्भालन्दनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣢ भू꣣र्ज꣡य꣢न्तं म꣣हां꣡ वि꣢पो꣣धां꣢ मू꣣रै꣡रमू꣢꣯रं पु꣣रां꣢ द꣣र्मा꣡ण꣢म् । न꣡य꣢न्तं गी꣣र्भि꣢र्व꣣ना꣡ धियं꣢꣯ धा꣣ ह꣡रि꣢श्मश्रुं꣣ न꣡ वर्मणा꣢꣯ धन꣣र्चि꣢म् ॥७४॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । भूः꣣ । ज꣡य꣢꣯न्तम् । म꣣हा꣢म् । वि꣣पोधा꣢म् । वि꣣पः । धा꣢म् । मू꣣रैः꣢ । अ꣡मू꣢꣯रम् । अ꣢ । मू꣣रम् । पुरा꣢म् । द꣣र्मा꣡ण꣢म् । न꣡य꣢꣯न्तम् । गी꣣र्भिः꣢ । व꣣ना꣢ । धि꣡य꣢꣯म् । धाः꣢ । ह꣡रि꣢꣯श्मश्रुम् । ह꣡रि꣢꣯ । श्म꣣श्रुम् । न꣢ । व꣡र्म꣢꣯णा । ध꣣नर्चि꣢म् ॥७४॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र भूर्जयन्तं महां विपोधां मूरैरमूरं पुरां दर्माणम् । नयन्तं गीर्भिर्वना धियं धा हरिश्मश्रुं न वर्मणा धनर्चिम् ॥७४॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । भूः । जयन्तम् । महाम् । विपोधाम् । विपः । धाम् । मूरैः । अमूरम् । अ । मूरम् । पुराम् । दर्माणम् । नयन्तम् । गीर्भिः । वना । धियम् । धाः । हरिश्मश्रुम् । हरि । श्मश्रुम् । न । वर्मणा । धनर्चिम् ॥७४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 74
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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पदार्थ -

प्रभु (प्रधाः) = विशेषरूप से धारण करते हैं। किसको ?

१. (भूर्जयन्तम्)=प्राणों पर विजय पानेवाले को। जो सदा प्राण- साधना से आसुर वृत्तियों को पराजित करता है, वही प्रभु का प्रिय होता है।

२. (महाम्)= प्रभु का प्रिय वह होता है जो अपने हृदय को विशाल बनाता है।

३. (विपो-धाम्) = [विप इति मेधाविनाम - नि० ३.५.१४] प्रभु का प्यारा मेधा को धारण करता है। अपने विज्ञानमयकोश को धारक ज्ञान का खज़ाना बनाता है।

४. (मूरैः अमूरम्) = यह मूर्खों के साथ मूर्ख नहीं बनता। अपने प्राणमयकोश को असुरों के आक्रमण से सुरक्षित करके यह प्रभुभक्त अपने मनोमयकोश को विशाल तथा विज्ञानमयकोश को ज्ञान से दीप्त बनाकर व्यवहार में बुद्धिमत्ता से चलता है। यह क्रोध को प्रेम से जीतने का प्रयत्न करता है ।

५. (पुरां दर्माणम्) = यह तीनों पुरों का विदारण करनेवाला बनता है। वैदिक साहित्य असुरों की तीन नगरियों का उल्लेख है - एक स्वर्ण की, दूसरी रजत की और तीसरी ‘अयस' [लोहे] की। इन्हीं तीन नगरियों का ध्वंस करके महादेव 'त्रिपुरारि' बने हैं। ये तीन नगरियाँ ही सात्त्विक, राजस, तामस सङ्ग कहे गये हैं। ये ही उत्तम, मध्यम व अधम बन्धन हैं। इन तीनों से ऊपर उठना ही तीन नगरियों का विदारण है और ऐसा करनेवाला ही प्रभु का प्रिय होता है।

६. (गीर्भिः वना धियं नयन्तम्) = स्तुतियों के द्वारा वननीय  सेवनीय बुद्धि को प्राप्त करनेवाला प्रभु का प्रिय होता है। प्रातः- सायं प्रभु के सम्पर्क में आने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है। उस शुद्ध बुद्धि में सदा शुद्ध विचार ही उत्पन्न होते हैं।

७. (हरिश्मश्रुं न)=यह प्रभुभक्त हरिश्मश्रु-सा [न=सा] बन जाता है। [श्म-श्रु-श्मनि श्रितम्] इसके शरीर में श्रित रहनेवाली प्रत्येक वस्तु- बल, भावना व ज्ञान औरों के दुःखों का हरण करनेवाली होती है। यह कभी किसी की हिंसा नहीं करता। इसका जीवन एक अ-ध्वर' हिंसाशून्य यज्ञ हो जाता है। 4

८. (वर्मणा धनर्चिम्) = यह प्रभुभक्त धन की भी अर्चना पूजा करता है, अर्थात् धन भी कमाता है, परन्तु ‘वर्मणा' उसे अपने शरीर का कवच बनाने के दृष्टिकोण से, अर्थात् जितना शरीर की आवश्यकताओं के लिए चाहिए उतना ही उसका अपने लिए विनियोग करते हुए-कभी विलास का शिकार न बनते हुए।

इन सब बातों के कारण यह प्रभु का 'वत्स' = प्रिय होता है, क्योंकि यह अपने कर्मों से प्रभु की क्रियात्मक स्तुति का उच्चारण [वद् - बोलना] करता है और अपने उत्तम कर्मों से प्रभु को प्रीणाति=प्रसन्न करता है। इस प्रकार इस मन्त्र का ऋषि ‘वत्सप्रीः' होता है।

भावार्थ -

मन्त्र में वर्णित बातों को जीवन में धारण करते हुए हम प्रभु से धारणीय बनें।

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