Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 750
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
1
स꣡ यो꣢जते अरु꣣षा꣢ वि꣣श्व꣡भो꣢जसा꣣ स꣡ दु꣢द्रव꣣꣬त्स्वा꣢꣯हुतः । सु꣣ब्र꣡ह्मा꣢ य꣣ज्ञः꣢ सु꣣श꣢मी꣣ व꣡सू꣢नां दे꣣व꣢꣫ꣳ राधो꣣ ज꣡ना꣢नाम् ॥७५०॥
स्वर सहित पद पाठसः । यो꣣जते । अरुषा꣣ । वि꣡श्व꣡भो꣢जसा । वि꣣श्व꣢ । भो꣣जसा । सः꣢ । दु꣣द्रवत् । स्वा꣢हुतः । सु । आ꣣हुतः । सुब्र꣡ह्मा꣢ । सु꣣ । ब्र꣡ह्मा꣢꣯ । य꣣ज्ञः꣢ । सु꣣श꣡मी꣢ । सु꣣ । श꣡मी꣢꣯ । व꣡सू꣢꣯नाम् । दे꣣व꣡म् । रा꣡धः꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯नाम् ॥७५०॥
स्वर रहित मन्त्र
स योजते अरुषा विश्वभोजसा स दुद्रवत्स्वाहुतः । सुब्रह्मा यज्ञः सुशमी वसूनां देवꣳ राधो जनानाम् ॥७५०॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । योजते । अरुषा । विश्वभोजसा । विश्व । भोजसा । सः । दुद्रवत् । स्वाहुतः । सु । आहुतः । सुब्रह्मा । सु । ब्रह्मा । यज्ञः । सुशमी । सु । शमी । वसूनाम् । देवम् । राधः । जनानाम् ॥७५०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 750
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
विषय - वामदेव का जीवन
पदार्थ -
१. परमेश्वर की उल्लिखित आठ विशेष गुणों से स्तुति करनेवाला (सः) = वह वामदेव अपने को (अरुषा) = तेज से (योजते) = जोड़ता है । कैसे तेज से ? (विश्व-भोजसा) = सबका पालन करनेवाले तेज से। दुर्जनों की शक्ति दूसरों के पीड़न के लिए होती है, परन्तु वामदेव अपनी शक्ति से सभी का पालन करता है। २. (स्वाहुत:) = [सु आहुत:] = बड़े उत्तम प्रकार से अपने तन-मन-धन की समाजहित के कार्य में आहुति दे-देनेवाला यह वामदेव (दुद्रुवत्) = पीड़ितों की पीड़ाओं को दूर करने के लिए निरन्तर भागता-फिरता है, [द्रु-गतौ+यङ् प्रत्यय=नित्य अर्थ में] । ३. (सु ब्रह्मा) = यह चारों वेदों का उत्तम ज्ञाता बनता है । जितना अधिक इसका ज्ञान होगा उतना अधिक यह लोकहित कर सकेगा। ४. (यज्ञः) = ज्ञानी बनकर यह अपने जीवन को यज्ञमय बनाता है। 'देवपूजा, संगतीकरण और दान' =बड़ों का आदर, बराबरवालों से प्रेम तथा छोटों के प्रति दया – ये तीन बातें इसके जीवन का सूत्र बन जाती हैं । ५. (सुशमी वसूनाम्) = यह यज्ञशील वामदेव संसार में अपने निवास को उत्तम बनाता हुआ औरों को भी उत्तम निवास देनेवाला होता है । वसु तो यह है ही । बसाने, नकि उजाड़ने के ही कार्य में यह लगा है। इस कार्य में लगे होने के साथ इसकी विशेषता यह है कि यह (सुशमी) = उत्तम शान्तिवाला है। अपने कार्य का ढिंढोरा पीटनेवाला नहीं है, मौन साधक [Silent worker] है। बड़ी शान्त, स्वस्थ, मनोवृत्ति से अपने कार्य में लगा रहता है । इस प्रकार कार्य में लगे रहने से ही ६. (देवं राधो जनानाम्) = मनुष्यों में यह (दिव्य) = अनुपम सफलता [राध्=सिद्धि] का लाभ करनेवाला है । स्वार्थ ही कार्य को बिगाड़ा करता है, स्वार्थ न होने से वामदेव को अपने कार्यों में अलौकिक सफलता का लाभ होता है ।
एवं, वामदेव कोरी उपासना ही नहीं करता, उसका जीवन क्रियामय है। उपासना के अनुकूल उसका पौरुष भी है। यही कारण है कि वह प्रभु का सच्चा उपासक बन पाता है। प्रत्येक सच्चे उपासक का जीवन ऐसा ही होना चाहिए। उपासना और कर्म में समन्वय हमें उपास्य- जैसा बना देता है ।
भावार्थ -
हमारी उपासना व कर्म में किसी प्रकार का विरोध न हो ।