Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 806
ऋषिः - उपमन्युर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
2
वृ꣢षा꣣ शो꣡णो꣢ अभि꣣क꣡नि꣢क्रद꣣द्गा꣢ न꣣द꣡य꣢न्नेषि पृथि꣣वी꣢मु꣣त꣢ द्याम् । इ꣡न्द्र꣢स्येव व꣣ग्नु꣡रा शृ꣢꣯ण्व आ꣣जौ꣡ प्र꣢चो꣣द꣡य꣢न्नर्षसि꣣ वा꣢च꣣मे꣢माम् ॥८०६॥
स्वर सहित पद पाठवृ꣡षा꣢꣯ । शो꣡णः꣢꣯ । अ꣣भिक꣡नि꣢क्रदत् । अ꣣भि । क꣡नि꣢꣯क्रदत् । गाः । न꣣द꣡य꣢न् । ए꣣षि । पृथिवी꣣म् । उ꣣त꣢ । द्याम् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । इ꣣व । वग्नुः꣢ । आ । शृ꣣ण्वे । आजौ꣢ । प्र꣣चोद꣡य꣢न् । प्र꣣ । चोद꣡य꣢न् । अ꣣र्षसि । वा꣡च꣢꣯म् । आ । इ꣣मा꣢म् ॥८०६॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा शोणो अभिकनिक्रदद्गा नदयन्नेषि पृथिवीमुत द्याम् । इन्द्रस्येव वग्नुरा शृण्व आजौ प्रचोदयन्नर्षसि वाचमेमाम् ॥८०६॥
स्वर रहित पद पाठ
वृषा । शोणः । अभिकनिक्रदत् । अभि । कनिक्रदत् । गाः । नदयन् । एषि । पृथिवीम् । उत । द्याम् । इन्द्रस्य । इव । वग्नुः । आ । शृण्वे । आजौ । प्रचोदयन् । प्र । चोदयन् । अर्षसि । वाचम् । आ । इमाम् ॥८०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 806
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - उपमन्यु का सुलझा हुआ जीवन
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘उपमन्यु वासिष्ठ' है। उपमन्यु का अर्थ है – १. [Intelligentunderstanding] जो बुद्धिमान् है, वस्तुस्थिति को समझता है। [Zealous, striving after]=उत्साही है, लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता है । यह उपमन्यु ‘वासिष्ठ' है, वसिष्ठ पुत्र है—अत्यन्त उत्तम निवासवाला व वशी है । प्रभु द्वारा इसका जीवन निम्न शब्दों में चित्रित हुआ है
१. (वृषा) = यह शक्तिशाली है - सब पर सुखों की वर्षा करनेवाला है । २. (शोण:) = [शोणति To go, move] अत्यन्त क्रियाशील है । To become red इसके चेहरे पर तेजस्विता की लालिमा है । ३. यह (गाः) = वेदवाणियों का (अभिकनिक्रदत्) = खूब ही उच्चारण करता है । ४. (नदयन्) = प्रभु का स्तवन करता हुआ, स्तुति-वचनों से (पृथिवीम्-उत द्याम्) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (नदयन्) = गुँजाता हुआ तू (एषि) = जीवनपथ पर आगे बढ़ता है । ५. (आजौ) = इस संसार संग्राम में (वग्नुः) = इसकी गर्जना (इन्द्रस्य इव) = मेघगर्जना की भाँति (आशृण्वे) = सुन पड़ती है अथवा इसकी वाणी प्रभु की वाणी के समान सुनाई पड़ती है । यह ऐसे प्रभावशाली प्रकार से प्रचार करता है कि प्रभु ही बोलते सुन पड़ते हैं । ६. प्रभु कहते हैं कि हे उपमन्यो ! (इमां वाचम्) = हमसे दी गयी इस वेदवाणी को (प्रचोदयन्) = प्रेरित करता हुआ तू (आ अर्षसि) = सर्वत्र गति करता है, अर्थात् सर्वत्र इस वेदवाणी के सन्देश को सुनाता हुआ भ्रमण करता है । यही तो सच्चा परिव्राजकत्व है ।
भावार्थ -
उपमन्यु के जीवन में 'शक्ति, गति, ज्ञान, प्रभु-स्तवन, प्रचार व वेद-सन्देश' का प्रसार है।
इस भाष्य को एडिट करें