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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 83
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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त्वे꣣ष꣡स्ते꣢ धू꣣म꣡ ऋ꣢ण्वति दि꣣वि꣢꣫ सं च्छु꣣क्र꣡ आत꣢꣯तः । सू꣢रो꣣ न꣢꣫ हि द्यु꣣ता꣢꣫ त्वं कृ꣣पा꣡ पा꣢वक꣣ रो꣡च꣢से ॥८३॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वे꣣षः꣢ । ते꣣ । धूमः꣢ । ऋ꣣ण्वति । दि꣣वि꣢ । सन् । शु꣣क्रः꣢ । आ꣡त꣢꣯तः । आ । त꣣तः । सू꣡रः꣢꣯ । न । हि । द्यु꣣ता꣢ । त्वम् । कृ꣣पा꣢ । पा꣣वक । रो꣡च꣢꣯से ॥८३॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वेषस्ते धूम ऋण्वति दिवि सं च्छुक्र आततः । सूरो न हि द्युता त्वं कृपा पावक रोचसे ॥८३॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वेषः । ते । धूमः । ऋण्वति । दिवि । सन् । शुक्रः । आततः । आ । ततः । सूरः । न । हि । द्युता । त्वम् । कृपा । पावक । रोचसे ॥८३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 83
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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पदार्थ -

पिछले मन्त्र में कहा था कि मनुष्य वीर बनने के लिए उस अग्निरूप प्रभु को हृदय में दीप्त करने का प्रयत्न करे। यदि ऐसा करेंगे तो दिवि उस चमकते हुए हृदयाकाश में हे प्रभो! (ते) = तेरा (त्वेषः) = प्रकाश-दीप्ति (ऋण्वति) = काम-क्रोधादि वासनाओं पर आक्रमण करता है। [ऋ=to attack] और इस प्रकार वह प्रकाश (धूमः) = इन हमारे आन्तर शत्रुओं को कम्पित करनेवाला होता है [धूञ् कम्पने] ।

यह प्रकाश कैसा है? १. (सन्) ='सत्' उत्तम सात्त्विक है; तामस होकर यह औरों के संहार के लिए विनियुक्त नहीं होता; राजस होकर इसका उद्देश्य ‘धन का संग्रहमात्र' नहीं हो जाता। यह तो सात्त्विक है, अतः प्राणिमात्र में आत्मतत्त्व की अनुभूति कराता है। २. (शुक्रः) = यह ज्ञान हमें गतिशील बनाता है [शुक् गतौ]। सभी प्राणियों में आत्मानुभूति होने पर सभी के दुःखों को हम अपना दुःख समझते हुए उन्हें दूर करने के लिए प्रवृत्त होते हैं और अधिक-से-अधिक क्रियाशील होते हैं। ब्रह्मज्ञानी क्रियाशील होता ही है- ('क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः')। ३. (आततः) = यह प्रकाश सब ओर विस्तारवाला होता है [आ+तन्+त] इस ज्ञान से उपासक का हृदय विशाल बनता है, वह सभी का हित करता है। वह सर्वत्र एकत्व देखता है और सर्व- भूत - हित में प्रवृत्त रहता है।

इस उपासक के जीवन में अब एक ज्योति [द्युत्] और शक्ति [कृप्=सामर्थ्ये] आ जाती है, परन्तु यह ज्योति व शक्ति उसकी अपनी थोड़े ही है? उसे इसका गर्व क्यों करना! मन्त्र कहता है कि (सूरो न)= सूर्य के समान [न = इव] (हि)= निश्चय से (पावक) हे पवित्र करनेवाले प्रभो! (त्वम्)=आप ही तो (द्युता) = ज्योति से और (कृपा) = सामर्थ्य से, शक्ति से (रोचसे) = चमकते हैं। वस्तुत: यह ज्योति और शक्ति प्रभु को हृदय में प्रतिष्ठित करने का ही परिणाम है। सूर्य में चमक है, शक्ति है, वह पवित्र करनेवाला है-उपासक के हृदय का सूर्य यह प्रभु भी चमकता है, शक्ति देता है और पवित्र करनेवाला है।
इस ‘द्युति' को प्राप्त करके उपासक बृहस्पति के समान ज्ञान से चमकता है, 'बार्हस्पत्य' बनता है और शक्ति को प्राप्त करके वह इस मन्त्र का ऋषि 'भरद्वाज' अपने में शक्ति को भरनेवाला बनता है।

भावार्थ -

प्रभु को अपने हृदयों में आसीन करके हम ज्योति व शक्ति से सम्पन्न होकर पावक = पवित्र व पवित्र करनेवाले बन जाएँ।

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