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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 82
ऋषिः - वामदेवः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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य꣡दि꣢ वी꣣रो꣢꣫ अनु꣣ ष्या꣢द꣣ग्नि꣡मि꣢न्धीत꣣ म꣡र्त्यः꣢ । आ꣣जु꣡ह्व꣢द्ध꣣व्य꣡मा꣢नु꣣ष꣡क्शर्म꣢꣯ भक्षीत꣣ दै꣡व्य꣢म् ॥८२

स्वर सहित पद पाठ

य꣡दि꣢꣯ । वी꣣रः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । स्यात् । अ꣣ग्नि꣢म् । इ꣣न्धीत । म꣡र्त्यः꣢꣯ । आ꣣जु꣡ह्व꣢त् । आ꣣ । जु꣡ह्व꣢꣯त् । ह꣣व्य꣢म् । आ꣣नुष꣢क् । अ꣣नु । स꣢क् । श꣡र्म꣢꣯ । भ꣣क्षीत । दै꣡व्य꣢꣯म् ॥८२॥१


स्वर रहित मन्त्र

यदि वीरो अनु ष्यादग्निमिन्धीत मर्त्यः । आजुह्वद्धव्यमानुषक्शर्म भक्षीत दैव्यम् ॥८२


स्वर रहित पद पाठ

यदि । वीरः । अनु । स्यात् । अग्निम् । इन्धीत । मर्त्यः । आजुह्वत् । आ । जुह्वत् । हव्यम् । आनुषक् । अनु । सक् । शर्म । भक्षीत । दैव्यम् ॥८२॥१

सामवेद - मन्त्र संख्या : 82
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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पदार्थ -

(यदि)=यदि (वीर:)=विशेषरूप से शत्रुओं को कम्पित करनेवाला [वि+ ईर] (अनुष्यात्) = होना चाहे [प्रार्थना में लिङ्लकार है] तो (मर्त्यः) = शत्रुओं से लड़ाई में जिसके मर जाने की सम्भावना है वह मनुष्य (अग्निम्) = शत्रुओं को जला डालनेवाले प्रभु को (इन्धीत) = अपने हृदय में, जहाँ काम-क्रोधादि शत्रुओं से युद्ध चल रहा है, दीप्त करे [इन्ध-दीप्त करना]। ‘यदि' शब्द हमारे कर्म-स्वातन्त्र्य की सूचना दे रहा है, हमारी इच्छा पर निर्भर है कि हम प्रभु को याद करें या न करें। 'मर्त्य' शब्द स्पष्ट कर रहा है कि इन शत्रुओं को हम युद्ध में हरा न सकेंगे। ‘अग्नि’ शब्द स्पष्ट संकेत कर रहा है कि इन शत्रुओं को वे अग्निरूप प्रभु ही जलाएँगे। इन्हें भस्मसात् करना मानवशक्ति से परे है। हमें प्रभु को हृदय में दीप्त करना है–हृदय में बिठाना है न कि बाहर मन्दिर के मण्डप में । युद्धस्थली हृदय है- प्रभु का वहीं उपस्थित होना आवश्यक है।

अब यदि हम प्रभु की सहायता से वीर बनकर शत्रुओं को कम्पित कर परे भगा देंगे तो हम कामादि से ऊपर उठकर अपने जीवन को हव्य:हविरूप बना सकेंगे- लोकहित के
लिए न्यौछावर कर सकेंगे और (आनुषक्) = निरन्तर-जीवन के सौ-के-सौ वर्ष (हव्यम्) = पवित्र हविमय जीवन की (आजुह्वत्) = प्राजापत्य यज्ञ में आहुति देते हुए हम (दैव्यम्)
= अलौकिक प्रभु की प्राप्तिरूप (शर्म) = दु:ख-संयोग के वियोगरूप शुद्ध सुख [आनन्द ] को (भक्षीत) = अनुभव करेंगे। सेवा में जो आनन्द है वह भोग के आनन्दों से अनन्तगुणा उत्तम है। प्राकृतिक सुखों में दुःख का मिश्रण है-यह प्रभु-प्राप्ति का आनन्द ही सब दुःखों को समाप्त कर शुद्ध आनन्द का अनुभव कराता है। यह जीवन को हव्य बना देने से ही मिलेगा। उस समय हमारा जीवन निर्दोष ही नहीं सुन्दर व दिव्य गुणोंवाला होगा। हम इस मन्त्र के ऋषि वामदेव होंगे।

भावार्थ -

 हम वीर बनकर जीवन को हविरूप बनाएँ और दिव्य सुख - मोक्ष के अधिकारी हों|

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