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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 857
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
त꣡र꣢त्समु꣣द्रं꣡ पव꣢꣯मान ऊ꣣र्मि꣢णा꣣ रा꣡जा꣢ दे꣣व꣢ ऋ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् । अ꣡र्षा꣢ मि꣣त्र꣢स्य꣣ व꣡रु꣢णस्य꣣ ध꣡र्म꣢णा꣣ प्र꣡ हि꣢न्वा꣣न꣢ ऋ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥८५७॥
स्वर सहित पद पाठत꣡रत्꣢꣯ । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उद्र꣢म् । प꣡व꣢꣯मानः । ऊ꣣र्मि꣡णा꣢ । रा꣡जा꣢꣯ । दे꣣वः꣢ । ऋ꣣त꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । अ꣡र्ष꣢꣯ । मि꣣त्र꣡स्य꣢ । मि꣣ । त्र꣡स्य꣢꣯ । व꣡रु꣢꣯णस्य । ध꣡र्म꣢꣯णा । प्र । हि꣣न्वानः꣢ । ऋ꣣त꣢म् । बृ꣣ह꣢त् ॥८५७॥
स्वर रहित मन्त्र
तरत्समुद्रं पवमान ऊर्मिणा राजा देव ऋतं बृहत् । अर्षा मित्रस्य वरुणस्य धर्मणा प्र हिन्वान ऋतं बृहत् ॥८५७॥
स्वर रहित पद पाठ
तरत् । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । पवमानः । ऊर्मिणा । राजा । देवः । ऋतम् । बृहत् । अर्ष । मित्रस्य । मि । त्रस्य । वरुणस्य । धर्मणा । प्र । हिन्वानः । ऋतम् । बृहत् ॥८५७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 857
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(पवमानः) = अपने जीवन को पवित्र बनाता हुआ व्यक्ति (ऊर्मिणा) = शरीर में वीर्य की अर्ध्वगति के द्वारा [ऊर्मि=current] (समुद्रम्) = [कमो हि समुद्रः] काम को (तरत्) = तर जाता है । वस्तुतः जब मनुष्य वीर्य की ऊर्ध्वगति का निश्चय कर लेता है, तभी वासना को जीत पाता है। इसका परिणाम यह होता है कि यह (राजा) = बड़े नियमित व दीप्त जीवनवाला बनता है [राजृ=regulate, दीप्त] (देवः) = इसमें दिव्य गुण उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं । (बृहत् ऋतम्) = उस महान् सत्यस्वरूप प्रभु को (अर्ष) = यह प्राप्त करता है। संसार में सारा उत्थान काम के विजय पर ही आश्रित है। इसका विजय कर लिया तो उत्थान है—इससे हम जीते गये तो पतन । इसको जीतकर हम प्रभु के समीप पहुँचते हैं।
(मित्रस्य वरुणस्य) = प्राणापान के (धर्मणा) = धारण के द्वारा (प्र हिन्वानः) = शक्ति को प्रकर्षेण ऊर्ध्वप्रेरित करता हुआ साधक (बृहत् ऋतम्) = उस अनन्त सत्य प्रभु को (अर्ष) = पाता है। मन काम का सर्वप्रधान अधिष्ठान है। प्राणापान से मनोनिरोध होता है। इसके निरुद्ध हो जाने पर काम निरुद्ध हो जाता है । काम को वशीभूत कर लेनेवाला व्यक्ति स्वास्थ्य व ज्ञान की दीप्ति से तो चमकता ही है [राजा], उसमें दिव्य गुणों का निवास होता है [देव] । इस प्रकार शरीर को स्वस्थ, मन को निर्मल तथा मस्तिष्क को दीप्त बनाकर वह व्यक्ति ('बृहत् ऋतम्') = प्रभु को पाने का अधिकारी बन जाता है । इस सारे मार्ग का मूल 'प्राणापान की साधना' है – यही प्राणायाम है और वास्तव में योग का एकदेश होते हुए भी यही 'योगमार्ग' है ।
भावार्थ -
प्राणापान की साधना से हम काम को जीतें, उससे हम स्वास्थ्य व ज्ञान से चमकेंगे। हममें दिव्य गुण होंगे और देव बनकर हम उस महादेव के अत्यन्त समीप हो जाएँगे ।
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