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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 941
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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धी꣣भि꣡र्मृ꣢जन्ति वा꣣जि꣢नं꣣ व꣢ने꣣ क्री꣡ड꣢न्त꣣म꣡त्य꣢विम् । अ꣣भि꣡ त्रि꣢पृ꣣ष्ठं꣢ म꣣त꣢यः꣣ स꣡म꣢स्वरन् ॥९४१॥

स्वर सहित पद पाठ

धी꣣भिः꣢ । मृ꣣जन्ति । वाजि꣡न꣢म् । व꣡ने꣢꣯ । क्री꣡ड꣢꣯न्तम् । अ꣡त्य꣢꣯विम् । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣣विम् । अभि꣢ । त्रि꣣पृष्ठ꣢म् । त्रि꣣ । पृष्ठ꣢म् । म꣣त꣡यः꣢ । सम् । अ꣣स्वरन् ॥९४१॥


स्वर रहित मन्त्र

धीभिर्मृजन्ति वाजिनं वने क्रीडन्तमत्यविम् । अभि त्रिपृष्ठं मतयः समस्वरन् ॥९४१॥


स्वर रहित पद पाठ

धीभिः । मृजन्ति । वाजिनम् । वने । क्रीडन्तम् । अत्यविम् । अति । अविम् । अभि । त्रिपृष्ठम् । त्रि । पृष्ठम् । मतयः । सम् । अस्वरन् ॥९४१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 941
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

पवमान सोम क्या करते हैं – १. (धीभिः) = ज्ञान के द्वारा (मृजन्ति) = सोमपान करनेवाले को शुद्ध कर डालते हैं। सोमपान से ज्ञानाग्नि दीप्त होकर जीवन को शुद्ध कर डालती है, २. (वाजिनम्) = यह सोमपान इस पुरुष को शक्तिशाली बनाता है । ३. (वने क्रीडन्तम्) = उस उपास्य परमेश्वर में क्रीड़ा करनेवाला बनाता है। सोमरक्षा से मनुष्य की वृत्ति ऐसी ऊँची हो जाती है कि वह सब क्रियाओं को प्रभु में हो रहा देखता है, उसे यह संसार प्रभु की क्रीड़ा प्रतीत होता है । ४. (अत्यविम्) = [अति=पूजित]। यह सोम उसे अतिशेयन अवि-रक्षक बनाता है । यह व्यक्ति आसुर वृत्तियों को अपने पर आक्रमण नहीं करने देता। ५. (त्रिपृष्ठम् अभि) = यह सोमपान करनेवाला 'ज्ञान, कर्म व भक्ति' तीनों को अपना आधार बनाता है और (मतयः) = सब ज्ञान इस 'त्रिपृष्ठ' की ओर (समस्वरन्) = गति करते हैं [ स्वृ to go], अर्थात् इसे सब ज्ञान प्राप्त होते हैं ।

भावार्थ -

सोमपान करने से ही मनुष्य ज्ञान, भक्ति व निष्काम कर्म का आधार बनता है। यह ज्ञान का आधार होने से 'चाक्षुष' है और निष्काम कर्म से आगे बढ़ता हुआ यह 'अग्नि' है।

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