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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 942
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
2
अ꣡स꣢र्जि क꣣ल꣡शा꣢ꣳ अ꣣भि꣢ मी꣣ढ्वा꣢꣫न्त्सप्ति꣣र्न꣡ वा꣢ज꣣युः꣢ । पु꣣नानो꣡ वाचं꣢꣯ ज꣣न꣡य꣢न्नसिष्यदत् ॥९४२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡स꣢꣯र्जि । क꣣ल꣡शा꣢न् । अ꣣भि꣢ । मी꣣ढ्वा꣢न् । स꣡प्तिः꣢꣯ । न । वा꣣ज꣢युः । पु꣣नानः꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । ज꣣न꣡य꣢न् । अ꣣सिष्यदत् ॥९४२॥
स्वर रहित मन्त्र
असर्जि कलशाꣳ अभि मीढ्वान्त्सप्तिर्न वाजयुः । पुनानो वाचं जनयन्नसिष्यदत् ॥९४२॥
स्वर रहित पद पाठ
असर्जि । कलशान् । अभि । मीढ्वान् । सप्तिः । न । वाजयुः । पुनानः । वाचम् । जनयन् । असिष्यदत् ॥९४२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 942
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - चाक्षुष अग्नि
पदार्थ -
यह सोम (कलशान् अभि) = सोलह कलाओं के आधारभूत शरीरों का लक्ष्य करके (असर्जि) = निर्मित हुआ है। यह शरीर को विफल नहीं होने देता। यह शरीर में होनेवाली कमियों को दूर करके उसे सदा सकल=पूर्ण बनाये रखता है। २. (मीढ्वान्) = इस प्रकार यह सब सुखों की वर्षा करनेवाला है। अङ्ग-प्रत्यङ्ग का, सब इन्द्रियों का ठीक होना ही 'सु-ख' है । ३. (सप्तिः न) = घोड़े के समान (वाजयुः) = शक्ति को यह हमारे साथ जोड़नेवाला है। सोमपान हमें इतनी शक्ति देता है कि हम घोड़े के समान अपने कर्त्तव्य मार्ग का आक्रमण करते हुए कभी थकते नहीं । ४. (पुनान:) = यह हमारे हृदयों में वेदवाणी का आविर्भाव करते हुए (असिष्यदत्) = हमारे शरीर में प्रवाहित होता है। सोमरक्षा से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और हृदय निर्मल, अतः हम प्रभु की वाणी को सुन पाते हैं। ज्ञानवृद्धि करके यह हमें ‘चाक्षुष' बनाता है और हमारी उन्नति का कारण बनकर हमें 'अग्नि' बनाता है ।
भावार्थ -
शरीर की न्यूनताओं को दूर करने के लिए ही प्रभु ने सोम की सृष्टि की है।