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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 981
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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त्व꣡ꣳ सो꣢म꣣ प꣡रि꣢ स्रव꣣ स्वा꣡दि꣢ष्ठो꣣ अ꣡ङ्गि꣢रोभ्यः । व꣣रिवोवि꣢द्घृ꣣तं꣡ पयः꣢꣯ ॥९८१॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वम् । सो꣣म । प꣡रि꣢ । स्र꣣व । स्वा꣡दि꣢꣯ष्ठ । अ꣡ङ्गि꣢꣯रोभ्यः । व꣣रिवोवि꣢त् । व꣣रिवः । वि꣢त् । घृ꣣त꣢म् । प꣡यः꣢꣯ ॥९८१॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वꣳ सोम परि स्रव स्वादिष्ठो अङ्गिरोभ्यः । वरिवोविद्घृतं पयः ॥९८१॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । सोम । परि । स्रव । स्वादिष्ठ । अङ्गिरोभ्यः । वरिवोवित् । वरिवः । वित् । घृतम् । पयः ॥९८१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 981
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे (वरिवोवित्) = सब उत्तम धनों को प्राप्त करानेवाले ! (सोम) = सब ऐश्वर्यों को जन्म देनेवाले प्रभो! आप (अङ्गिरोभ्यः) = प्राणविद्या के साधकों के लिए (स्वादिष्ठः) = अत्यन्त रसमय हैं । ('रसो वै सः’) =, ‘रस’ तो प्रभु ही हैं, परन्तु उस 'रस' का अनुभव 'प्राणविद्या' के साधक ही कर पाते हैं। आप हमें (घृतम्) = नैर्मल्य व दीप्ति तथा (पयः) = आप्यायन-वृद्धि को (परिस्रव) = प्राप्त कराएँ ।

प्राणसाधना के मार्ग को अपनाने पर साधक को चित्तवृत्ति की एकाग्रता के अनुपात में उस रसमय प्रभु के रस का अनुभव होने लगता है। हमारे जीवनों में एक दिन वह आता है, जब हमारे लिए प्रभु-चिन्तन ही स्वादिष्ट व मधुरतम हो जाता है । वे प्रभु ही हमें ‘नैर्मल्य, दीप्ति व आप्यायन' प्राप्त कराते हैं ।

भावार्थ -

हम प्राणसाधनावाले अङ्गिरा बनें और प्रभु-भक्ति के रस का पान करें।

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