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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 980
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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सो꣢ अ꣣र्षे꣡न्द्रा꣢य पी꣣त꣡ये꣢ ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢ । सी꣡द꣢न्नृ꣣त꣢स्य꣣ यो꣢नि꣣मा꣢ ॥९८०॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । अ꣣र्ष । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पी꣣त꣡ये꣢ । ति꣣रः꣢ । वा꣡रा꣢꣯णि । अ꣣व्य꣡या꣢ । सी꣡द꣢꣯न् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । आ ॥९८०॥


स्वर रहित मन्त्र

सो अर्षेन्द्राय पीतये तिरो वाराण्यव्यया । सीदन्नृतस्य योनिमा ॥९८०॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । अर्ष । इन्द्राय । पीतये । तिरः । वाराणि । अव्यया । सीदन् । ऋतस्य । योनिम् । आ ॥९८०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 980
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘जमदग्नि भार्गव' है, जिसने आचार्यकुल में रहकर वेदवाणी का अध्ययन करते हुए नियमित आहार-विहार से जाठराग्नि को ठीक रख 'जमदग्नि' बनकर स्वास्थ्य को स्थिर रक्खा है और ज्ञान द्वारा अपना ठीक परिपाक कर' भार्गव' नाम को चरितार्थ किया है । इस जमदग्नि से प्रभु कहते हैं कि — १. (सः) = वह तू (इन्द्राय अर्ष) = इन्द्र बनने के लिए गतिशील हो, तेरा प्रयत्न जितेन्द्रिय बनने के लिए हो । २. (पीतये) = अपनी रक्षा के लिए शरीर में उत्पन्न किये गये सोम का पान करनेवाला बन [पा पाने, पा रक्षणे] । ३. (अव्यया) = रक्षण में उत्तम इस वेदवाणी के द्वारा तू वाराणि - ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को [वाराणि = वृत्राणि] (तिरः) = पार कर जा । ४. (ऋतस्य) = ऋत के, सत्य वेदज्ञान के (योनिम्) = मूलस्थान प्रभु में (आसीदन्) = बैठने के हेतु से (अर्ष) = गतिमय हो । तेरी सारी क्रियाएँ इसलिए हों कि तू अन्ततः ऋत के स्रोत तक पहुँच सके - ऋत के मूलस्थान प्रभु में स्थित हो सके। 

भावार्थ -

हम जितेन्द्रिय बनें, सोमपान करें, वासनाओं को तरें और अन्त में ऋत के मूलस्थान प्रभु में पहुँच जाएँ। 

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