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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 982
ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
2
त꣢व꣣ श्रि꣡यो꣢ व꣣꣬र्ष्य꣢꣯स्येव वि꣣द्यु꣢तो꣣ग्ने꣡श्चि꣢कित्र उ꣣ष꣡सा꣢मि꣣वे꣡त꣢यः । य꣡दो꣢꣯षधी꣣रभि꣡सृ꣢ष्टो꣣ व꣡ना꣢नि च꣣ प꣡रि꣢ स्व꣣यं꣡ चि꣢नु꣣षे꣡ अन्न꣢꣯मा꣣स꣡नि꣢ ॥९८२॥
स्वर सहित पद पाठत꣡व꣢꣯ । श्रि꣡यः꣢꣯ । व꣣र्ष्य꣢स्य । इ꣣व । विद्यु꣡तः꣢ । वि꣣ । द्यु꣡तः꣢꣯ । अ꣣ग्नेः꣢ । चि꣣कित्रे । उष꣡सा꣢म् । इ꣣व । ए꣡त꣢꣯यः । आ । इ꣣तयः । य꣢त् । ओ꣡ष꣢꣯धीः । ओ꣡ष꣢꣯ । धीः꣣ । अभि꣡सृ꣢ष्टः । अ꣣भि꣢ । सृ꣣ष्टः । व꣡ना꣢꣯नि । च꣣ । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣣य꣢म् । चि꣣नुषे꣢ । अ꣡न्न꣢꣯म् । आ꣣स꣡नि꣢ ॥९८२॥
स्वर रहित मन्त्र
तव श्रियो वर्ष्यस्येव विद्युतोग्नेश्चिकित्र उषसामिवेतयः । यदोषधीरभिसृष्टो वनानि च परि स्वयं चिनुषे अन्नमासनि ॥९८२॥
स्वर रहित पद पाठ
तव । श्रियः । वर्ष्यस्य । इव । विद्युतः । वि । द्युतः । अग्नेः । चिकित्रे । उषसाम् । इव । एतयः । आ । इतयः । यत् । ओषधीः । ओष । धीः । अभिसृष्टः । अभि । सृष्टः । वनानि । च । परि । स्वयम् । चिनुषे । अन्नम् । आसनि ॥९८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 982
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - 'अरुण' का जीवन-सूत्र- -सादा खाना, पानी पीना [सौ वर्ष जीना ] "
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'अरुण' [ऋ गतौ + उनन्] गतिशील है तथा 'वीतहव्य' [वीतं स्वादितं हव्यं येन] पवित्र सात्त्विक भोजन करनेवाला है। प्रभु कहते हैं कि — हे अरुण ! (अभिसृष्ट:) = [अभिसृज्=to prepare] मोक्षपथ का आक्रमण करने के लिए उद्यत हुआ-हुआ तू (यत्) = जब (ओषधीः) = रोगनाशक औषधरूप द्रव्यों को (च वनानि) = और जलों को तथा (अन्नम्) = अन्नों को (स्वयम्) = अपने पुरुषार्थ से (आसनि) = मुख में (परि चिनुषे) = चिनता है, तब (तव) = तेरी (श्रियः) = शोभाएँ (वर्ष्यस्य) = बरसनेवाले बादलों की (विद्युतः इव) = बिजलियों की भाँति प्रतीत होती हैं तथा हे (अग्ने) = [अगि गतौ] आगे और आगे चलनेवाले अरुण ! (उषसाम्) = उष:कालों के (ईतयः) = आगमनों के (इव) = समान (चिकित्रे) = जानी जाती हैं । यह 'अरुण वीतहव्य' का मार्ग है । इस अरुण के उन्नति-पथ का निर्देश मन्त्र इस प्रकार कर रहा है -
१. (अभिसृष्टः) = यह उन्नति-पथ पर चलने का सङ्कल्प करके उसपर चलने के लिए तैयार है। २. इसका खानपान अत्यन्त सात्त्विक व सादा है— ओषधियाँ, जल व अन्न – - ये ही इसके भक्ष्य व पेय हैं [ओषधी: वनानि, अन्नम्] । ३. यह स्वयं अन्न कमाता है— अपने भोजन के लिए औरों पर बोझ नहीं डालता [स्वयम्] । ४. यह अन्न का मुख में उसी प्रकार चयन करता है जिस प्रकार वेदी के अग्निकुण्ड में सामग्री व घृत का [चिनुषे आसनि] । शरीर वेदि है, मुख अग्निकुण्ड और उसमें पड़नेवाला भोजन हविर्द्रव्य । एवं, इसका भोजन भी एक यज्ञ ही हो जाता है । यह 'वीतहव्य' है, अतः ऐसा होना ही चाहिए । ५. ऐसा करने पर इस उन्नति-पथ पर बढ़नेवाले [अग्नि] की शोभा वर्ष्य विद्युत् के समान होती है। बरसनेवाला मेघ अत्यन्त काला है, उसमें विद्युत् चमकती है। इसी प्रकार इस वीतहव्य के जीवन मेघ में भी विद्युत् का प्रकाश होता है। चारों ओर अन्धकार होने पर भी इसे बीच-बीच में प्रकाश दिखता है [वर्ष्यस्येव विद्युतः] । ६. और साधना के बढ़ते-बढ़ते इसके जीवन में उष:काल का अरुणोदय हो जाता है। इसे निरन्तर मधुर प्रकाश दिखने लगता है [उषसामिवेतयः] यह सचमुच 'अरुण' बन जाता है ।
भावार्थ -
हम जीवन में सङ्कल्पपूर्वक चलें, खानपान सात्त्विक रखें, अपना भोजन स्वयं कमाएँ, भोजन को भी यज्ञ का रूप दे दें, वर्ण्य विद्युत् के समान हमें भी जीवन के काले बादलों में प्रकाश दिखे और साधना की वृद्धि के साथ हमारे जीवन में अरुणोदय ही हो जाए - यही मोक्षमार्ग है।
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