Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - वरुणो अथवा यमः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुलपाकन्या सूक्त
असि॑तस्य ते॒ ब्रह्म॑णा क॒श्यप॑स्य॒ गय॑स्य च। अ॑न्तःको॒शमि॑व जा॒मयो ऽपि॑ नह्यामि ते॒ भग॑म्।।४।।
स्वर सहित पद पाठअसि॑तस्य । ते॒ । ब्रह्म॑णा । क॒श्यप॑स्य । गय॑स्य । च॒ । अ॒न्त॒:को॒शम्ऽइ॑व । जा॒मय॑: । अपि॑ । न॒ह्या॒मि॒ । ते॒ । भग॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असितस्य ते ब्रह्मणा कश्यपस्य गयस्य च। अन्तःकोशमिव जामयो ऽपि नह्यामि ते भगम्।।४।।
स्वर रहित पद पाठअसितस्य । ते । ब्रह्मणा । कश्यपस्य । गयस्य । च । अन्त:कोशम्ऽइव । जामय: । अपि । नह्यामि । ते । भगम् ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
विषय - पत्नी अन्तः कोश'-सी
पदार्थ -
१. (असितस्य ते) = विषयों से अबद्ध जो तू (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा (कश्यपस्य) = [पश्यकस्य] वस्तुओं को ठीक रूप में देखनेवाला जो तू, वस्तुत: विषयों की आपात रमणीयता से तू इसीलिए तो मोहित नहीं हुआ कि तूने उन्हें ठीक रूप में देखा है, (गयस्य च) = प्राणशक्ति से सम्पन्न जो तू है, उस तेरे लिए (जामयः) = पत्नी (अन्तः कोशम् इव) = आध्यात्मिक सम्पत्ति के समान हैं। विषयों से अबद्ध, ज्ञान के कारण तात्विक दृष्टिवाला, प्राणसाधक पुरुष पत्नी को अपनी आध्यात्मिक सम्पत्ति के रूप में देखता है। वह पत्नी में एक मित्र को पाता है, जो उसे पतन से बचाकर उत्थान की ओर ले जानेवाली होती है। वैषयिक, अतात्त्विक दृष्टिवाले, प्राणशक्ति के महत्त्व को न समझनेवाले पुरुष के लिए यह स्त्री ही नरक का द्वार हो जाती है। २. कन्या का पिता कहता है कि हम अपनी कन्या को तुम्हारे लिए क्या देते हैं (ते भगम्) = तुम्हारा ऐश्वर्य (अपि नह्यामि) = तुम्हारे साथ जोड़ते हैं।
भावार्थ -
पति 'असित, कश्यप व गय' होता है तो पत्नी उसके लिए 'अन्त:कोश' के समान होती है।
विशेष -
कुलवधू 'भग व वर्च' वाली हो [१]। वर नियमित जीवनवाला व संयमी हो [२]। वह विवाह का मूलोद्देश्य वंश-अविच्छेद ही समझे[३]।अवैषयिक, तात्त्विक-दृष्टिवाले, प्राणसाधक पुरुष के लिए पत्नी 'अन्त:कोश'-सी है [४]। इसप्रकार के घरों में ही प्रेम और मेल बना रहता है। यह प्रेम सामाजिक सङ्गठन के रूप में व्यक्त होता है -