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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - सिन्धुसमूहः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - पुष्टिकर्म सूक्त

    इ॒हैव हव॒मा या॑त म इ॒ह सं॑स्रावणा उ॒तेमं व॑र्धयता गिरः। इ॒हैतु॒ सर्वो॒ यः प॒शुर॒स्मिन्ति॑ष्ठतु॒ या र॒यिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । ए॒व । हव॑म् । आ । या॒त॒ । मे॒ । इ॒ह । स॒मऽस्रा॒व॒णा॒: । उ॒त । इ॒म् । व॒र्ध॒य॒त॒ । गि॒र॒: ।इ॒ह । आ । ए॒तु॒ । सर्व॑: । य: । प॒शु: । अ॒स्मिन् । ति॒ष्ठ॒तु॒ । या । र॒यि: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहैव हवमा यात म इह संस्रावणा उतेमं वर्धयता गिरः। इहैतु सर्वो यः पशुरस्मिन्तिष्ठतु या रयिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । एव । हवम् । आ । यात । मे । इह । समऽस्रावणा: । उत । इम् । वर्धयत । गिर: ।इह । आ । एतु । सर्व: । य: । पशु: । अस्मिन् । तिष्ठतु । या । रयि: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. सङ्गठन का प्रधान कहता है कि (इह) = यहाँ (मे हवम्) = मेरी पुकार होने पर (आयात एव) = आओ ही, (उत) = और यहाँ सभास्थल में आकर हे (संस्त्रावणा: गिरः) = सङ्गठन करनेवाले प्रचारको! (इमम् वर्धयत) = इस सङ्गठन को बढ़ाओ, अर्थात् सङ्गठन के महत्त्व को लोगों के हदयों पर अङ्कित करके उनमें सङ्गठन की भावना भर दो। २. तुम्हारी इन वाणियों के परिणामस्वरूप (यः पशु:) = जो पाशविक भावना है, स्वार्थ के कारण अलग-अलग रहने की भावना है, वह (सर्व:) = सभी (इह एतु) = यहाँ सभास्थल पर आये और वह यहीं रह जाए, वह यहीं यज्ञाग्नि में भस्म हो जाए और (अस्मिन्) = इन उपस्थित लोगों में (यः रयि:) = जो धन है, धन्य बनानेवाली उत्तम भावना है, वही (तिष्ठतु) = रहे।

    भावार्थ -

    लोग सङ्गठन-यज्ञ के लिए होनेवाली सभाओं में एकत्र हों। वहाँ प्रमुख वक्ताओं के भाषणों से प्रभावित होकर पशुभाव को दूर करें और एकता के भाव से अपने को धन्य बनाएँ।

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