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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 21/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    अपे॑न्द्र द्विष॒तो मनो॑ ऽप॒ जिज्या॑सतो व॒धम्। वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । इ॒न्द्र॒ । द्वि॒ष॒त: । मन॑: । अप॑ । जिज्या॑सत: । व॒धम् ।वि । म॒हत् । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । वरी॑य: । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपेन्द्र द्विषतो मनो ऽप जिज्यासतो वधम्। वि महच्छर्म यच्छ वरीयो यावया वधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । इन्द्र । द्विषत: । मन: । अप । जिज्यासत: । वधम् ।वि । महत् । शर्म । यच्छ । वरीय: । यवय । वधम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 21; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १.हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (द्विषत: मनः अप) = द्वेष करनेवाले के मन को हमसे दूर कीजिए, अर्थात् हम अपने मन में किसी के प्रति द्वेष न करें, (जिग्यासत:) = [ज्या बयोहानी] आयुष्य का नाश करनेवाले के (वधम्) = वध को (अप) = हमसे दूर कीजिए। हम किसी के आयुष्यनाश की वृत्तिवाले न हों। २. हे प्रभो! आप हमारे लिए (महत्) = शर्म महनीय सुख को (यच्छ) = प्राप्त कराइए और (वधम्) = वध को (वरीय: यावय) = हमसे बहुत दूर कीजिए। हमारे मन में किसी के वध इत्यादि का विचार ही उत्पन्न न हो। ३. जहाँ राजा का कर्तव्य है कि वह राष्ट्र की अन्त:-बाह्य शत्रुओं से रक्षा करे, वहाँ प्रत्येक प्रजावर्ग का भी यह कर्तव्य है कि वह अपने जीवन में से द्वेष आदि भावना को दूर करके सारा व्यवहार करे।

    भावार्थ -

    हम अपने मनों से द्वेष व दूसरों के आयुष्य-नाश की भावना व बध को दूर करें और इसप्रकार उत्तम नागरिक बनें।

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