अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
प्रा॒णो मृ॒त्युः प्रा॒णस्त॒क्मा प्रा॒णं दे॒वा उपा॑सते। प्रा॒णो ह॑ सत्यवा॒दिन॑मुत्त॒मे लो॒क आ द॑धत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒ण: । मृ॒त्यु: । प्रा॒ण: । त॒क्मा । प्रा॒णम् । दे॒वा: । उप॑ । आ॒स॒ते॒ । प्रा॒ण: । ह॒ । स॒त्य॒ऽवा॒दिन॑म् । उ॒त्ऽत॒मे । लो॒के । आ । द॒ध॒त् ॥६.११॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणो मृत्युः प्राणस्तक्मा प्राणं देवा उपासते। प्राणो ह सत्यवादिनमुत्तमे लोक आ दधत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्राण: । मृत्यु: । प्राण: । तक्मा । प्राणम् । देवा: । उप । आसते । प्राण: । ह । सत्यऽवादिनम् । उत्ऽतमे । लोके । आ । दधत् ॥६.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
विषय - प्राणसाधना से उत्तम लोक
पदार्थ -
१. (प्राणः मृत्युः) = यह 'प्राण' देव ही अपने निर्गमन के द्वारा सब प्राणियों का मारणकर्ता होता है तथा (प्राण: तक्मा) = प्राण ही, पूर्ण स्वस्थगतिवाला न होता हुआ, ज्वरादि रोगों का कारण बनता है। (देवा:) = शरीरस्थ सब इन्द्रियाँ (प्राणं उपासते) = इस प्राण की ही उपासना करती हैं सब इन्द्रियों में वस्तुत: प्राणशक्ति ही कार्य करती है। ('प्राण: वाव इन्द्रियाणि')। २. (प्राणः ह) = प्राण ही निश्चय से (सत्यवादिनम्) = सत्यवादी पुरुष को (उत्तमे लोके आदधत्) = उत्तम लोक में धारण करता है। प्राणसाधना से जैसे शरीर से रोग नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार इस साधना से मन से असत्य दूर भाग जाता है, इसप्रकार इस साधक की उत्तम गति होती है।
भावार्थ -
प्राण का बहिर्गमन ही मृत्यु है, इसकी अस्वस्थ गति ही रोग है। सब इन्द्रियों में प्राणशक्ति ही कार्य करती है। प्राणसाधना से मानस दोष भी दूर होकर उत्तम लोक की प्राप्ति होती है।
इस भाष्य को एडिट करें