अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 12
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
प्रा॒णो वि॒राट्प्रा॒णो देष्ट्री॑ प्रा॒णं सर्व॒ उपा॑सते। प्रा॒णो ह॒ सूर्य॑श्च॒न्द्रमाः॑ प्रा॒णमा॑हुः प्र॒जाप॑तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒ण: । वि॒ऽराट् । प्रा॒ण: । देष्ट्री॑ । प्रा॒णम् । सर्वे॑ । उप॑ । आ॒स॒ते॒ । प्रा॒ण: । ह॒ । सूर्य॑: । च॒न्द्रमा॑ । प्रा॒णम । आ॒हु॒: । प्र॒जाऽप॑तिम् ॥६.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणो विराट्प्राणो देष्ट्री प्राणं सर्व उपासते। प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राणमाहुः प्रजापतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्राण: । विऽराट् । प्राण: । देष्ट्री । प्राणम् । सर्वे । उप । आसते । प्राण: । ह । सूर्य: । चन्द्रमा । प्राणम । आहु: । प्रजाऽपतिम् ॥६.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 12
विषय - 'प्राणः' विराट
पदार्थ -
१. (प्राण:) = सारे ब्रह्माण्ड को प्राणित करनेवाला प्रभु ही (विराट) = इस स्थूल प्रपञ्च का अधिष्ठाता [शासक] ईश्वर है। वह (प्राण:) = प्राणशक्ति देनेवाला प्रभु ही (देष्ट्री) = अपने-अपने व्यापारों में सबको प्रेरित करनेवाला है (प्राणम्) = इस विराट् देष्ट्री' प्राण को ही (सर्वे उपासते) = सब लोग स्वाभिलषित की सिद्धि के लिए सेवित करते हैं। २. (प्राण: ह) = सबको प्राणित करनेवाले प्रभु ही (सूर्यः चन्द्रमा:) = सबके प्रेरक 'आदित्य' व अमृतमय 'सोम' है-वे प्रभु'अग्रीषोमात्मक' हैं। (प्राणम्) = इस प्राण को ही (प्रजापतिम् आहुः) = प्रजाओं का स्रष्टा देव कहते हैं।
भावार्थ -
प्राणों के भी प्राण प्रभु इस ब्रह्माण्डरूप शरीर के अधिष्ठाता 'विराट' हैं। वे ही सबके कर्तव्यों का निर्देश करनेवाले हैं। सब लोग इस प्राण की ही उपासना करते हैं। वह प्राण ही सूर्य-चन्द्र व प्रजापति हैं। अग्नीषोमात्मक होता हुआ यह प्राण ही सब प्रजाओं का पालक हैं|
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