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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा साम्नी बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    स प्र॒जाप॑तिःसु॒वर्ण॑मा॒त्मन्न॑पश्य॒त्तत्प्राज॑नयत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । प्र॒जाऽप॑ति: । सु॒ऽवर्ण॑म् । आ॒त्मन् । अ॒प॒श्य॒त् । तत् । प्र । अ॒ज॒न॒य॒त् ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स प्रजापतिःसुवर्णमात्मन्नपश्यत्तत्प्राजनयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । प्रजाऽपति: । सुऽवर्णम् । आत्मन् । अपश्यत् । तत् । प्र । अजनयत् ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (व्रात्यः) = व्रतसमूह का पालन करनेवाला यह व्रतीपुरुष (इयमानः एव आसीत्) = गतिशील ही था, यह कभी अकर्मण्य नहीं हुआ। (स:) = वह व्रात्य (प्रजापतिं समैरयत्) = अपने हृदयदेश में प्रजापति प्रभु की भावना को प्रेरित करता था। इसने हदय में प्रभु का चिन्तन किया। वस्तुतः प्रभु-स्मरणपूर्वक क्रिया होने पर क्रिया में अपवित्रता नहीं आती। २. (सः प्रजापतिः) = उस प्रजापति प्रभु ने सुवर्णम्-प्रभु गुणों का सम्यक् वर्णन करनेवाले इस ज्ञानी को (आत्मन् अपश्यत्) = अपनी गोद में बैठा देखा। ब्रह्मनिष्ठ होकर ही तो यह व्रात्य सब कर्मों को कर रहा था, (तत्) = अत: (प्राजनयत्) = प्रभु ने इस व्रात्य के जीवन का विकास किया। इसे उत्तम गुणों से युक्त जीवनवाला मनाया।

    भावार्थ -

    व्रतमय जीवनवाला यह साधक क्रियाशील हुआ। इसने हृदय में प्रभु की भावना को प्रेरित किया। प्रभु ने इस आत्मनिष्ठ व्रात्य के गुणों का विकास किया।

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