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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 13/ मन्त्र 12
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आसुरी जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    कर्षे॑देनं॒ नचै॑नं॒ कर्षे॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कर्षे॑त् । ए॒न॒म् । न । च॒ । ए॒न॒म् । कर्षे॑त् ॥१३.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कर्षेदेनं नचैनं कर्षेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कर्षेत् । एनम् । न । च । एनम् । कर्षेत् ॥१३.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 12

    पदार्थ -

    १. (अथ) = अब (यस्य गृहान्) = जिसके घर को (अव्रात्य:) = एक अव्रती (व्रात्यब्रुवः) = अपने को व्रती कहनेवाला, नाम (बिभ्रती) = केवल अतिथि के नाम को धारण करनेवाला (अतिथि: आगच्छेत) = अतिथि आ जाए तो क्या (एनं कर्षेत) = इसे खदेड़ दें-क्या इसका निरादर करके भगा दें? (न च एनं कर्षेत्) = नहीं, निश्चय से उसे निरादरित न करें, २. अपितु अतिथि की भावना से ही इसप्रकार अपनी पत्नी से कहे कि (अस्यै देवतायै उदकं याचामि) = इस देवता के लिए उदक [पानी] माँगता हूँ। (इमां देवतां वासये) = इस देवता को निवास के लिए स्थान देता हूँ। (इमाम्) = इस और (इमां देवताम्) = इस देवता को ही (परिवेवेष्यात) = भोजन परोसे। ऐसा करने पर (अस्यै) = इस गृहस्थ का (तत्) = वह भोजन परिवेषणादि कर्म (तस्यां एव देवतायाम्) = उस अतिथिदेव में ही (हुतं भवति) = दिया हुआ होता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार अतिथि के महत्त्व को समझता है, वह इस व्रात्यब्रुव को भी भोजन परोस ही देता है और अतिथियज्ञ को विच्छिन्न नहीं होने देता।

    भावार्थ -

    अन्नती भी अतिथिरूपेण उपस्थित हो जाए तो उसका निरादर न करके उसे भी खानपान से तृप्त ही करें। अतिथियज्ञ को विच्छिन्न न होने दे।

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