अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - एकपदा विराट् बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तं प्र॒जाप॑तिश्चपरमे॒ष्ठी च॑ पि॒ता च॑ पिताम॒हश्चाप॑श्च श्र॒द्धा च॑ व॒र्षंभू॒त्वानु॒व्यवर्तयन्त ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । प्र॒जाऽप॑ति: । च॒ । प॒र॒मे॒ऽस्थी । च॒ । पि॒ता । च॒ । पि॒ता॒म॒ह: । च॒ । आप॑: । च॒ । श्र॒ध्दा । च॒ । व॒र्षम् । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡वर्तयन्त ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तं प्रजापतिश्चपरमेष्ठी च पिता च पितामहश्चापश्च श्रद्धा च वर्षंभूत्वानुव्यवर्तयन्त ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । प्रजाऽपति: । च । परमेऽस्थी । च । पिता । च । पितामह: । च । आप: । च । श्रध्दा । च । वर्षम् । भूत्वा । अनुऽव्यवर्तयन्त ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
विषय - महिमा-सद्रुः, समुद्रः
पदार्थ -
१. (स:) = वह व्रात्य (महिमा) = [मह पूजायाम] पूजा की वृत्तिवाला-प्रभुपूजनपरायण तथा (सद्रुः) = द्रुतगति से युक्त-अतिकर्मनिष्ठ (भूत्वा) = होकर (पृथिव्याः अन्तम्) = पृथिवी के अन्त को पार्थिव भागों की समाप्ति को (आगच्छत्) = प्राप्त हुआ और परिणामतः (सः) = वह व्रात्य (समुद्रः) = अत्यन्त आनन्द-[मोद]-मय जीवनवाला हुआ। पार्थिव भागों से ऊपर उठकर प्रभुस्मरणपूर्वक कर्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होना ही आनन्द का मार्ग है। २. (तम्) = उस व्रात्य को (प्रजापति: च परमेष्ठी च) = प्रजारक्षक, परम स्थान में स्थित प्रभु, (पिता च पितामहः च) = पिता और पितामह, (आपः च श्रद्धा च) = [आपः रेतो भूत्वा] शरीरस्थ रेत:कण और श्रद्धा की भावना (वर्ष भूत्वा) = आनन्द की वृष्टि का रूप धारण करके (अनुवर्तयन्त) = अनुकूलता से कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। 'प्रभु प्रेरणा, बड़ों की प्रेरणा तथा शक्ति और श्रद्धा' इसे कर्तव्य-कर्मों में प्रेरित करते हैं। यह उन्हीं में आनन्द का अनुभव करता है। ३. (एनम्) = इस व्रात्य को आप: शरीरस्थ रेत:कण (आगच्छन्ति) = समन्तात् प्राप्त होते है। (एनम्) = इसे श्रद्धा-श्रद्धा आगच्छति-प्राप्त होती है। (एनम्) = इसे (वर्षम्) = आनन्द की वृष्टि (आगच्छति) = प्राप्त होती है। ये उस व्रात्य को प्राप्त होती हैं जो (एवं वेद) = इस प्रकार कर्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होने के महत्व को समझ लेता है। वह यह समझ लेता है कि परमेष्ठी बनने का उपाय प्रजापति बनना ही है, अर्थात् सर्वोच्च स्थिति तभी प्राप्त होती है जब हम प्रजारक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त हों।
भावार्थ -
व्रात्य प्रभुपूजन-परायण होकर कर्तव्यकर्मों में लगा रहता है, पार्थिव भोगों से ऊपर उठकर आनन्दमय जीवनवाला होता है। इसे प्रभु-प्रेरणा, बड़ों की प्रेरणा तथा शक्ति और श्रद्धा सदा कर्मों में प्रेरित करती हैं।
इस भाष्य को एडिट करें