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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    सोऽर॑ज्यत॒ ततो॑राज॒न्योऽजायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । अ॒र॒ज्य॒त॒ । तत॑: । राज॒न्य᳡: । अ॒जा॒य॒त॒ ॥८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोऽरज्यत ततोराजन्योऽजायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । अरज्यत । तत: । राजन्य: । अजायत ॥८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 8; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (सः अरज्यत) = इस व्रात्य ने प्रजाओं का रञ्जन किया। तत: उस रञ्जन के कारण (राजन्य:) = राजन्य (अजायत) = हो गया। 'राजति' दीप्त जीवनवाला बना। (स:) = वह प्रजा का रजन करनेवाला व्रात्य (सबन्धून विश:) = बन्धुओंसहित प्रजाओं का तथा (अन्नं अन्नाद्यं अभि) = अन्न और अन्नाद्य का लक्ष्य करके (उदतिष्ठत) = उत्थानवाला हुआ। उसने बन्धुओं व प्रजाओं की स्थिति को उन्नत करने का प्रयत्न किया कि अन्न व अन्नाद्य की कमी न हो। कोई भी भूखा न मरे। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार समझ लेता है कि उसने बन्धुओं व प्रजाओं को उन्नत करना है और अन्न व अन्नाद्य की कमी नहीं होने देनी, (सः) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (सबन्धूनां च) = अपने समान बन्धुओं का (विशाम् च) = प्रजाओं का तथा (अन्नस्य अन्नाद्यस्य च) = अन्न और अन्नाद्य का प्(रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है।

    भावार्थ -

    एक व्रात्य लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त हुआ-हुआ बन्धुओं व प्रजाओं को उन्नत करने का प्रयत्न करता है, अन्न व अन्नाद्य की कमी न होने देने के लिए यत्नशील होता है। इसप्रकार प्रजाओं का रञ्जन करता हुआ यह राजन्य होता है।

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