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अथर्ववेद > काण्ड 16 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    सूक्त - दुःस्वप्ननासन देवता - द्विपदा साम्नी बृहती छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त

    तं त्वा॑ स्वप्न॒तथा॒ सं वि॑द्म॒ स नः॑ स्वप्न दुः॒ष्वप्न्या॑त्पाहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । त्वा॒ । स्व॒प्न॒ । तथा॑ । सम् । वि॒द्म॒ । स । न॒: । स्व॒प्न॒ । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । पा॒हि॒ ॥५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा स्वप्नतथा सं विद्म स नः स्वप्न दुःष्वप्न्यात्पाहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । त्वा । स्वप्न । तथा । सम् । विद्म । स । न: । स्वप्न । दु:ऽस्वप्न्यात् । पाहि ॥५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 5; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (स्वप्न) = सोने के समय, गाढ़ निन्द्रा के न होने पर, अन्तःकरण में उत्पन्न होनेवाले स्वप्न! (ते जनित्रं विद्य) = तेरे उत्पत्तिकारण को हम जानते हैं। (ग्राह्याः पुत्रः असि) = तू ग्राही का पुत्र है। वह बीमारी जो हमें पकड़ लेती है 'ग्राही' कहलाती है। इस बीमारी से सामान्य पुरुष दुःखी जीवनवाला होकर रात को भी उस बीमारी के ही स्वप्न देखता है। इसप्रकार यह स्वप्न उसे मृत्यु की ओर ले-जाता है। यह (यमस्य करण:) = यम का करण–साधन बनता है। २. वस्तुतः हे स्वप्न! तु (अन्तकः असि) = अन्त करनेवाला है, (मृत्यः असि) = तू मौत ही है। ३. हे स्वप्न-रात्रि में भी व्याकुलता का कारण बननेवाले स्वप्न! (तं त्वा) = उस तुझको तथा-उस तेरे अन्तक व मृत्यु के ठीक रूप को हम (संविद्य) = सम्यक् जानते हैं। तुझे ठीक रूप में देखते हैं। जैसा तू है, वैसा तुझे समझते हैं। वैसा समझकर ही प्रार्थना करते हैं कि हे (स्वप्न) = स्वप्न ! (स:) = वह तू (न:) = हमें (दु:ष्वप्न्यात् पाहि) = दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत रोगों से बचा। न हम ग्राही से पीड़ित हों और न ही अशुभ स्वप्नों को देखें।

    भावार्थ - हमें बुरी तरह से जकड़ लेनेवाले रोग ग्राही कहलाते हैं। इनसे पीड़ित होने पर हम अशुभ स्वप्नों को देखते हैं। ये स्वप्न हमें मृत्यु की ओर ले-जाते है। हम प्रयत्न करके ऐसे रोगों से अपने को बचाएँ। परिणामत: अशुभ स्वप्नों से बचकर दीर्घजीवी बनें।

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