अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
ऋषिः - दुःस्वप्ननासन
देवता - द्विपदा साम्नी बृहती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
55
तं त्वा॑ स्वप्न॒तथा॒ सं वि॑द्म॒ स नः॑ स्वप्न दुः॒ष्वप्न्या॑त्पाहि ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । त्वा॒ । स्व॒प्न॒ । तथा॑ । सम् । वि॒द्म॒ । स । न॒: । स्व॒प्न॒ । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । पा॒हि॒ ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा स्वप्नतथा सं विद्म स नः स्वप्न दुःष्वप्न्यात्पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । त्वा । स्वप्न । तथा । सम् । विद्म । स । न: । स्वप्न । दु:ऽस्वप्न्यात् । पाहि ॥५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आलस्यादिदोष के त्याग के लिये उपदेश।
पदार्थ
(स्वप्न) हे स्वप्न ! [आलस्य] (तम्) उस (त्वा) तुझको (तथा) वैसा ही (सम्) अच्छे प्रकार (विद्म) हमजानते हैं, (सः) सो तू (स्वप्न) हे स्वप्न ! [आलस्य] (नः) हमें (दुःष्वप्न्यात्)बुरी निद्रा में उठे कुविचार से (पाहि) बचा ॥३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! कुपश्यआदि करने से गठिया आदि रोग होते हैं, गठिया आदि से आलस्य और उससे अनेकविपत्तियाँ मृत्यु आदि होती हैं। इससे सब लोग दुःखों के कारण अति निद्रा आदि कोखोजकर निकालें और केवल परिश्रम की निवृत्ति के लिये ही उचित निद्रा का आश्रयलेकर सदा सचेत रहें ॥१-३॥
टिप्पणी
३−(तम्) तादृशम् (त्वा) त्वाम् (स्वप्न) (तथा) तेनप्रकारेण (सम्) सम्यक् (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (दुःष्वप्न्यात्)दुःस्वप्न-यत्। दुष्टस्वप्नेषु भवात् कुविचारात् (पाहि) रक्ष ॥
विषय
ग्राही का पुत्र
पदार्थ
१. हे (स्वप्न) = सोने के समय, गाढ़ निन्द्रा के न होने पर, अन्तःकरण में उत्पन्न होनेवाले स्वप्न! (ते जनित्रं विद्य) = तेरे उत्पत्तिकारण को हम जानते हैं। (ग्राह्याः पुत्रः असि) = तू ग्राही का पुत्र है। वह बीमारी जो हमें पकड़ लेती है 'ग्राही' कहलाती है। इस बीमारी से सामान्य पुरुष दुःखी जीवनवाला होकर रात को भी उस बीमारी के ही स्वप्न देखता है। इसप्रकार यह स्वप्न उसे मृत्यु की ओर ले-जाता है। यह (यमस्य करण:) = यम का करण–साधन बनता है। २. वस्तुतः हे स्वप्न! तु (अन्तकः असि) = अन्त करनेवाला है, (मृत्यः असि) = तू मौत ही है। ३. हे स्वप्न-रात्रि में भी व्याकुलता का कारण बननेवाले स्वप्न! (तं त्वा) = उस तुझको तथा-उस तेरे अन्तक व मृत्यु के ठीक रूप को हम (संविद्य) = सम्यक् जानते हैं। तुझे ठीक रूप में देखते हैं। जैसा तू है, वैसा तुझे समझते हैं। वैसा समझकर ही प्रार्थना करते हैं कि हे (स्वप्न) = स्वप्न ! (स:) = वह तू (न:) = हमें (दु:ष्वप्न्यात् पाहि) = दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत रोगों से बचा। न हम ग्राही से पीड़ित हों और न ही अशुभ स्वप्नों को देखें।
भावार्थ
हमें बुरी तरह से जकड़ लेनेवाले रोग ग्राही कहलाते हैं। इनसे पीड़ित होने पर हम अशुभ स्वप्नों को देखते हैं। ये स्वप्न हमें मृत्यु की ओर ले-जाते है। हम प्रयत्न करके ऐसे रोगों से अपने को बचाएँ। परिणामत: अशुभ स्वप्नों से बचकर दीर्घजीवी बनें।
भाषार्थ
(स्वप्न) हे सुस्वप्न ! (तम्) उस (त्वा) तुझ को (तथा) उस प्रकार का अर्थात दुष्वप्न्यविनाशकरूप से (सं विद्म) हम अच्छी प्रकार से या ठीक-ठीक जानते हैं, (सः) वह तू (नः) हमारी (दुष्वप्न्यात्) दुःस्वप्न और उस के दुष्परिणामों से (पाहि) रक्षा कर।
विषय
दुःस्वप्न और मृत्यु से बचने के उपाय।
भावार्थ
हे (स्वप्न) स्वप्न ! (ते जनित्रं विद्म) हम तेरे उत्पत्ति स्थान को जानते हैं तू (ग्राह्याः) ग्राही अंगों को शिथिल करने वाली शक्ति का (पुत्रः असि=) पुत्र है, उससे उत्पन्न होता है। तू (यमस्य करणः) यम बांध लेने वाले का करण साधन है। तू (अन्तकः असि) ‘अन्तक’ है सब चेतना वृत्तियों का अन्त करने वाला है। तू (मृत्युः असि) मृत्यु है। हे (स्वप्न) स्वप्न ! (तं त्वा) उस तुझको हम (तथा) उस प्रकार (संविद्म) भली प्रकार से जानते हैं। (सः सः) वह तू हमें (दुःस्वप्न्यात्) (पाहि) दुःखप्रद स्वप्न की अवस्था या मृत्यु से बचा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। १-६ (प्र०) विराड्गायत्री (५ प्र० भुरिक्, ६ प्र० स्वराड्) १ प्र० ६ मि० प्राजापत्या गायत्री, तृ०, ६ तृ० द्विपदासाम्नी बृहती। दशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Atma-Aditya Devata
Meaning
O dream, we know what you are. O sleep, save us from bad dreams.
Translation
As such, O dream, we come to an agreement with you. May you, as such, O dream, shield us from the evil dream.
Translation
We know as such this dream well and let that dream save us from the state of bed dream.
Translation
As such, O Idleness, we know thee well! As such preserve us from the ignoble thoughts arising out of an evil dream
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(तम्) तादृशम् (त्वा) त्वाम् (स्वप्न) (तथा) तेनप्रकारेण (सम्) सम्यक् (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (दुःष्वप्न्यात्)दुःस्वप्न-यत्। दुष्टस्वप्नेषु भवात् कुविचारात् (पाहि) रक्ष ॥
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