अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
ऋषिः - दुःस्वप्ननासन
देवता - प्राजापत्या गायत्री,द्विपदा साम्नी बृहती, भुरिक् विराट् गायत्री
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
48
वि॒द्म ते॑स्वप्न ज॒नित्रं॒ परा॑भूत्याः पु॒त्रोऽसि॑ य॒मस्य॒ कर॑णः । अन्त॑कोऽसिमृ॒त्युर॑सि । तं त्वा॑ स्वप्न॒ तथा॒ सं वि॑द्म॒ स नः॑ स्वप्नदुः॒ष्वप्न्या॑त्पाहि ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म । ते॒ । स्व॒प्न॒ । ज॒नित्र॑म् । परा॑ऽभूत्या: । पु॒त्र: । अ॒सि॒ । य॒मस्य॑ । कर॑ण: ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्म तेस्वप्न जनित्रं पराभूत्याः पुत्रोऽसि यमस्य करणः । अन्तकोऽसिमृत्युरसि । तं त्वा स्वप्न तथा सं विद्म स नः स्वप्नदुःष्वप्न्यात्पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म । ते । स्वप्न । जनित्रम् । पराऽभूत्या: । पुत्र: । असि । यमस्य । करण: ॥५.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आलस्यादिदोष के त्याग के लिये उपदेश।
पदार्थ
(स्वप्न) हे स्वप्न ! [आलस्य] (ते) तेरे (जनित्रम्) जन्मस्थान को (विद्म) हम जानते हैं, तू (पराभूत्याः) पराभूति [पराभव, हार] का (पुत्रः) पुत्र और (यमस्य) मृत्यु का (करणः) करनेवाला (असि) है... [म० २, ३] ॥७॥
भावार्थ
मन्त्र १-३ के समान है॥७॥
टिप्पणी
७−(पराभूत्याः) पराजितेः। पराभवस्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
'दुर्गति, अशक्ति, अनैश्वर्य व पराजय' आदि से बचना
पदार्थ
१. हे स्वप्न-स्वप्न ! (ते जनित्रं विद्म) = तेरे उत्पत्ति-कारण को हम जानते हैं। तू (निर्ऋत्याः पुत्रः असि) = दुर्गति [विनाश, decay] का पुत्र है। मृत्यु की देवता का तू साधन बनता है। तू अन्त करनेवाला है, मौत ही है। हे स्वप्न ! उस तुझको हम तेरे ठीक रूप में जानते हैं। तू हमें दु:स्वप्नों की कारणभूत इस दुर्गति [निर्ऋति-विनाश] से बचा। २. हे स्वप्न ! हम (ते जनित्र विद्म) = तेरे उत्पत्ति-कारण को समझते हैं। तू (अभूत्याः पुत्रः असि) = अभूति का [want of power] शक्ति के अभाव का पुत्र है। शक्ति के विनाश के कारण तू उत्पन्न होता है। मृत्यु की देवता का तू साधन बनता है। तू अन्त करनेवाला है, मौत ही है। हे स्वप्न! उस तुझको हम तेरे ठीक रूप में जानते हैं। तू हमें दुःस्वप्नों की कारणभूत इस अभूति [शक्ति के विनाश] से बचा। ३. हे स्वप्न! हम (ते जनित्रं विद्म) = तेरे उत्पत्ति-कारण को जानते हैं। तु नि (अभूत्याः पत्र: असि) = अनैश्वर्य [ऐश्वर्य के नष्ट हो जाने] का पुत्र है। धन के विनष्ट होने पर रात्रि में उस निर्भूति के कारण अशुभ स्वप्न आते हैं। हे स्वप्न! तू मृत्यु की देवता का साधन बनता है। तू अन्त करनेवाला है, मौत ही है। हे स्वप्न ! हम तुझे तेरे ठीक रूप में जानते हैं। तु हमें दुःस्वप्नों की कारणभूत इस निर्भूति [अनैश्वर्य] से बचा। ४. हे स्वप्न! हम (ते जनित्रं विद्म) = तेरे उत्पत्ति कारण को जानते हैं। तू (पराभूत्याः पुत्रः असि) = पराजय का पुत्र है। तू मृत्यु की देवता का साधन बनता है। तू अन्त करनेवाला है, मौत ही है। हे स्वप्न! तु हमें दु:स्वप्नों की कारणभूत इस पराभूति [पराजय] से बचा। ५. हे स्वप्न! हम (ते जनित्रं विद्म) = तेरे उत्पत्ति-कारण को जानते हैं। तू (देवजामीनां पुत्रः असि) = [देव: इन्द्रियों, जम् to eat] 'इन्द्रियों का जो निरन्तर विषयों का चरण [भक्षण] है' उसका पुत्र है। इन्द्रियाँ सदा विषयों में भटकती हैं तो रात्रि में उन्हीं विषयों के स्वप्न आते रहते हैं। इसप्रकार ये स्वप्न (यमस्य करण:) = मृत्यु की देवता के उपकरण बनते हैं। हे स्वप्न! तू तो (अन्तकः असि) = अन्त ही करनेवाला है, (मृत्युः असि) = मौत ही है। हे स्वप्न! (तं त्वा) = उस तुझको तथा उस प्रकार, अर्थात् मृत्यु के उपकरण के रूप में (संविद्म) = हम जानते हैं, अत: हे स्वप्न! (स:) = वह तू (न:) = हमें (दुःष्वप्न्यात् पाहि) = दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत इन 'इन्द्रियों के निरन्तर विषयों में चरण' से बचा।
भावार्थ
'दुर्गति-अशक्ति-अनैश्वर्य-पराजय व इन्द्रियों का विषयों में भटकना' ये सब अशुभ स्वप्नों के कारण होते हुए शीघ्र मृत्यु को लानेवाले होते हैं। हम इन सबसे बचकर अशुभ स्वप्नों को न देखें और दीर्घजीवन प्राप्त करें।
भाषार्थ
(स्वप्न) हे सुस्वप्न ! (ते) तेरे (जनित्रम्) उत्पत्तिकारण को (विद्म) हम जानते हैं, (पराभूत्याः) पराभव का (पुत्रः) परिणाम (असि) तू है, शेष, मन्त्र १-३ की तरह।
टिप्पणी
[पराभूति = पराभव, विषयों का पराभव, विषयों पर विजय, विजयों का इन्द्रियों और मन पर प्रभाव न होने देना। विषय भावना, दुःष्वप्न और दुष्वप्न्य का कारण बनती है ]
विषय
दुःस्वप्न और मृत्यु से बचने के उपाय।
भावार्थ
हे स्वप्न ! (विद्म ते जनित्रं) [४-८ ] हम तेरी उत्पत्ति का कारण जानते हैं। तू (निर्ऋत्याः पुत्रः असि) निर्ऋति, पापप्रवृत्ति का पुत्र है। तू (अभूत्याः पुत्रः असि) ‘अभूति’, चेतना या ऐश्वर्य की सत्ता के अभाव का पुत्र है, उससे उत्पन्न होता है। (निर्भूत्याः पुत्रः असि) ‘निर्भूति’, चेतनाकी बाह्य सत्ता या अपमान से उत्पन्न होता है। (परा-भूत्याः पुत्रः असि) चेतनाकी सत्ता से दूर की स्थिति या अपमान से उत्पन्न होता है। (देवजामीनां पुत्रः असि) देव= इन्द्रियगत प्राणों के भीतर विद्यमान जामि = दोषों से उत्पन्न होता है। (अन्तकः असि तं त्वा स्वप्न० इत्यादि) पूर्ववत् ऋचा २, ३ के समान।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। १-६ (प्र०) विराड्गायत्री (५ प्र० भुरिक्, ६ प्र० स्वराड्) १ प्र० ६ मि० प्राजापत्या गायत्री, तृ०, ६ तृ० द्विपदासाम्नी बृहती। दशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Atma-Aditya Devata
Meaning
O dream, we know your origin, you are the child of defeat and frustration, you are an agent of Yama, you are a harbinger of the end, you are death itself. O dream, we know what you are really. O sleep, save us from bad dreams.
Translation
O dream, we know your place of origin; you' are son of defeat; an instrument of the Controller Lord. You are the ender; you are death. As such, O dream, we come to an agreement with you. May you, as such, O dream, shield us from the evil dream.
Translation
We know the origin of dream, it is the son of defeat and the means of Yama... (rest as above).
Translation
We know thine origin, O idleness! Thou art the son of Defeat, the bringer of Death. Thou art the Ender of Consciousness. Thou art Death. As such, O idleness, we know thee well! As such preserve us from the ignoble thoughts of an evil dream.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(पराभूत्याः) पराजितेः। पराभवस्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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