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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 50
एयम॑ग॒न्दक्षि॑णाभद्र॒तो नो॑ अ॒नेन॑ द॒त्ता सु॒दुघा॑ वयो॒धाः। यौव॑ने जी॒वानु॑पपृञ्च॒ती ज॒रापि॒तृभ्य॑ उपसं॒परा॑णयादि॒मान् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒यम् । अ॒ग॒न् । दक्षि॑णा । भ॒द्र॒त: । न॒: । अ॒नेन॑ । द॒त्ता । सु॒ऽदुघा॑ । व॒य॒:ऽधा: । यौव॑ने । जी॒वान् । उ॒प॒ऽपृञ्च॑ती । ज॒रा । पि॒तृऽभ्य॑: । उ॒प॒ऽसंप॑रानयात् । इ॒मान् ॥४.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
एयमगन्दक्षिणाभद्रतो नो अनेन दत्ता सुदुघा वयोधाः। यौवने जीवानुपपृञ्चती जरापितृभ्य उपसंपराणयादिमान् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इयम् । अगन् । दक्षिणा । भद्रत: । न: । अनेन । दत्ता । सुऽदुघा । वय:ऽधा: । यौवने । जीवान् । उपऽपृञ्चती । जरा । पितृऽभ्य: । उपऽसंपरानयात् । इमान् ॥४.५०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 50
विषय - दान व प्रभु-स्तवन [दक्षिणा + जरा]
पदार्थ -
१. (इयम्) = यह (दक्षिणा) = दानवृत्ति (नः) = हमें (भद्रत:) = कल्याण की दृष्टि से (आ अगन्) = सर्वथा प्राप्त होती है। हम देने की वृत्तिवाले बनते हैं और यह वृत्ति हमारा कल्याण ही करती है। (अनेन) = इस व्यक्ति से (दत्ता) = दी हुई यह (दक्षिणा सुदुघा) = उत्तमता से हमारा प्रपूरण करनेवाली है, और (वयोधाः) = उत्कृष्ट जीवन का धारण करती है। गृहस्थ में दान की वृत्ति कल्याण-ही-कल्याण करती है। २. यौवने यौवन में-युवावस्था में (जीवान् उपपञ्चती) = जीवों को समीपता से प्राप्त होती हुई जरा-स्तुति-प्रभु-स्तवन की वृत्ति (इमान्) = इन जीवों को (पितृभ्यः उपसंपराणयात्) = पितरों को समीपता से प्राप्त कराती है। प्रभु-स्तवन की वृत्तिवालों को प्रभुकृपा से उत्तम पितरों का सम्पर्क प्रास होता है और ये उनसे ठीक मार्ग का ज्ञान प्राप्त करते हुए जीवन में भटकने से बचे रहते है।
भावार्थ - हम गृहस्थ में दानवृत्तिवाले बनें। यह हमारा प्रपूरण करेगी और उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त कराएगी। प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें। प्रभु हमें उत्तम पितरों के सम्पर्क द्वारा ठीक मार्ग का ज्ञान प्राप्त कराके भटकने से बचाएंगे।
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