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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 70
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    प्रास्मत्पाशा॑न्वरुण मुञ्च॒ सर्वा॒न्यैः स॑मा॒मे ब॒ध्यते॒ यैर्व्या॒मे। अधा॑जीवेम श॒रदं॑ शतानि॒ त्वया॑ राजन्गुपि॒ता रक्ष॑माणाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒स्मत् । पाशा॑न् । व॒रु॒ण॒ । मु॒ञ्च॒ । सर्वा॑न् । यै: । स॒म्ऽआ॒मे । ब॒ध्यते॑ । यै: । वि॒ऽआ॒मे । अध॑ । जी॒वे॒म॒ । श॒रद॑म् । श॒तानि॑ । त्वया॑ । रा॒ज॒न् । गु॒पि॒ता: । रक्ष॑माणा: ॥४.७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रास्मत्पाशान्वरुण मुञ्च सर्वान्यैः समामे बध्यते यैर्व्यामे। अधाजीवेम शरदं शतानि त्वया राजन्गुपिता रक्षमाणाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अस्मत् । पाशान् । वरुण । मुञ्च । सर्वान् । यै: । सम्ऽआमे । बध्यते । यै: । विऽआमे । अध । जीवेम । शरदम् । शतानि । त्वया । राजन् । गुपिता: । रक्षमाणा: ॥४.७०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 70

    पदार्थ -
    १. हे वरुण पाशों का निवारण करनेवाले प्रभो! (अस्मत्) = हमसे (सर्वान् पाशान् मुञ्च) = सब पाशों को मुक्त कर दीजिए। उन पाशों को हमसे छुड़ा दीजिए (यै:) = जिनसे समामे [सम आम-रोग] समानरूप से फैल जानेवाले रोगों में (बध्यते) = बाँधा जाता है और (यै:) = जिनसे (व्यामे) = [वि आम] विशिष्ट रोगों में जकड़ा जाता है। २. (अधा) = अब पाशों से मुक्त होने पर, हे (राजन्) = ब्रह्माण्ड के शासक प्रभो! (त्वया) = आपके द्वारा (गुपिता:) = रक्षित हुए-हुए रक्षमाणा:-और शक्ति के अनुसार औरों का रक्षण करते हुए शतानि शरदं जीवेम-सौ वर्षपर्यन्त जीनेवाले बनें।

    भावार्थ - हम पाशमुक्त हों। परिणामत: रोगमुक्त बनें। प्रभु से रक्षित हुए-हुए तथा यथाशक्ति औरों का रक्षण करते हुए हम सौ वर्ष तक जीनेवाले बनें।

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