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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 70
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    47

    प्रास्मत्पाशा॑न्वरुण मुञ्च॒ सर्वा॒न्यैः स॑मा॒मे ब॒ध्यते॒ यैर्व्या॒मे। अधा॑जीवेम श॒रदं॑ शतानि॒ त्वया॑ राजन्गुपि॒ता रक्ष॑माणाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒स्मत् । पाशा॑न् । व॒रु॒ण॒ । मु॒ञ्च॒ । सर्वा॑न् । यै: । स॒म्ऽआ॒मे । ब॒ध्यते॑ । यै: । वि॒ऽआ॒मे । अध॑ । जी॒वे॒म॒ । श॒रद॑म् । श॒तानि॑ । त्वया॑ । रा॒ज॒न् । गु॒पि॒ता: । रक्ष॑माणा: ॥४.७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रास्मत्पाशान्वरुण मुञ्च सर्वान्यैः समामे बध्यते यैर्व्यामे। अधाजीवेम शरदं शतानि त्वया राजन्गुपिता रक्षमाणाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अस्मत् । पाशान् । वरुण । मुञ्च । सर्वान् । यै: । सम्ऽआमे । बध्यते । यै: । विऽआमे । अध । जीवेम । शरदम् । शतानि । त्वया । राजन् । गुपिता: । रक्षमाणा: ॥४.७०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 70
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के नियमों का उपदेश।

    पदार्थ

    (वरुण) हे दुःखनिवारकपरमेश्वर ! (अस्मत्) हम से (सर्वान्) सब (पाशान्) फन्दों को (प्र मुञ्च) खोल दे, (यैः) जिन [फन्दों] से (समामे) छूत रोग में, और (यैः) जिन से (व्यामे) विशेष रोगमें (बध्यते) [प्राणी] बाँधा जाता है। (अध) तब (राजन्) हे राजन् ! [परमेश्वर] (त्वया)तुझ कर के (गुपिताः) रक्षा किये गये और (रक्षमाणाः) [दूसरों की] रक्षा करते हुएहम (शतानि) सैकड़ों (शरदम्) बरसों तक (जीवेम) जीवें ॥७०॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य हैकि जो कोई रोग परस्पर छूत से वा कुपथ्य आदि दोष से हो जावें, परमेश्वर की उपासनाकरते हुए वैद्यराजों की सम्मति से उन रोगों का निवारण करके स्वस्थ रहकर सबकीरक्षा करें ॥७०॥

    टिप्पणी

    ७०−(प्रमुञ्च) सर्वथा मोचय (अस्मत्) अस्मत्तः (पाशान्) बन्धान् (वरुण) हे दुःखनिवारकपरमात्मन् (सर्वान्) (यैः) पाशैः (समामे) सम्+अम रोगेपीडने-घञ्। संगतिरोगे। सम्पर्केण प्राप्ते रोगे (बध्यते) बन्धं प्राप्नोति (यैः) (व्यामे) विशेषरोगे (जीवेम) पाशान् धारयेम (शरदम्) शरदः। संवत्सरान् (शतानि)बहुसंख्याकानि (त्वया) (राजन्) हे शासक परमात्मन् (गुपिताः) रक्षिताः (रक्षमाणाः) अन्यान् रक्षन्तः ॥

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    विषय

    समामे व्यामे [बध्यते]

    पदार्थ

    १. हे वरुण पाशों का निवारण करनेवाले प्रभो! (अस्मत्) = हमसे (सर्वान् पाशान् मुञ्च) = सब पाशों को मुक्त कर दीजिए। उन पाशों को हमसे छुड़ा दीजिए (यै:) = जिनसे समामे [सम आम-रोग] समानरूप से फैल जानेवाले रोगों में (बध्यते) = बाँधा जाता है और (यै:) = जिनसे (व्यामे) = [वि आम] विशिष्ट रोगों में जकड़ा जाता है। २. (अधा) = अब पाशों से मुक्त होने पर, हे (राजन्) = ब्रह्माण्ड के शासक प्रभो! (त्वया) = आपके द्वारा (गुपिता:) = रक्षित हुए-हुए रक्षमाणा:-और शक्ति के अनुसार औरों का रक्षण करते हुए शतानि शरदं जीवेम-सौ वर्षपर्यन्त जीनेवाले बनें।

    भावार्थ

    हम पाशमुक्त हों। परिणामत: रोगमुक्त बनें। प्रभु से रक्षित हुए-हुए तथा यथाशक्ति औरों का रक्षण करते हुए हम सौ वर्ष तक जीनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (वरुण) हे पापनिवारक, वरणीय श्रेष्ठ ईश्वर! (अस्मत्) हमसे (सर्वान्) सब (पाशान्) पाप-फंदों को (प्रमुञ्च) छुड़ा दीजिए, (यैः यैः) जिन-जिन पाप-फंदों द्वारा यह जीवात्मा (समामे व्यामे) लम्बे-चौड़े शरीर में (बध्यते) बन्ध जाता है। (अधा) तदनन्तर अर्थात् पाप-फंदों से छुटकारा पाकर (राजन्) हे जगत् के स्वामी! (त्वया) आप के द्वारा (गुपिताः) सुरक्षित हुए, और (रक्षमाणाः) पापों से अपनी रक्षा करते हुए हम (शतानि शरदम्) १०० वर्षों तक (जीवेम) जीवें।

    टिप्पणी

    [समाम=चौड़े। व्याम=लम्बे। “समामो नाम व्यामसंज्ञितप्रदेशात् संकुचितप्रमाणको देशः। संनिकटे प्रदेशे दूरे प्रदेशे चेति यावत्” (सायण)।]

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    विषय

    देवयान और पितृयाण।

    भावार्थ

    हे (वरुण) वरुण ! परमात्मन् ! (अस्मत्) हमसे (सर्वान्) उन सब (पाशान्) कर्मबन्धनों को (प्रमुञ्च) छुड़ा (यैः) जिनों से यह जीव (समामे) समान रूप से (बध्यते) बांधा जाता है और जिनों से जीव (व्यामे) विशेष रूप से भी बन्ध जाता है। हे ! (राजन्) सबके राजन् परमेश्वर ! हम (त्वया गुपिताः) तेरे द्वारा सुरक्षित रहते हुए (शरदां शतानि) सैकड़ों वर्ष (जीवेम) जीवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Varuna, remove and shed away all chains of bondage from us, chains by which the soul is tied in space and time, by laws made by man and laws of cosmic justice. And then, O lord self-refulgent, preserved, protected and promoted by you, we would live happy for a full hundred years.

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    Translation

    Release from us all fetters, O Varuna, with which one is bound crosswise, with which lengthwise; so may we live hundred of autumns by thee, O king, guarded, defended.

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    Translation

    O Varuna, (All-worshipped Divinity) please set us free from all those bonds with which a Jiva is bound at length and cross-wise. O All ruling God, we protected and preserved by you live a hundred autumns.

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    Translation

    O All-cherishable and Worthy God, set us free from all those bonds wherewith a man is bound in general and in particular. Thus, O Radiant God, being protected and guarded by thee, we may live hundreds of years.

    Footnote

    जातानि: 'means countless in the state of salvation].

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७०−(प्रमुञ्च) सर्वथा मोचय (अस्मत्) अस्मत्तः (पाशान्) बन्धान् (वरुण) हे दुःखनिवारकपरमात्मन् (सर्वान्) (यैः) पाशैः (समामे) सम्+अम रोगेपीडने-घञ्। संगतिरोगे। सम्पर्केण प्राप्ते रोगे (बध्यते) बन्धं प्राप्नोति (यैः) (व्यामे) विशेषरोगे (जीवेम) पाशान् धारयेम (शरदम्) शरदः। संवत्सरान् (शतानि)बहुसंख्याकानि (त्वया) (राजन्) हे शासक परमात्मन् (गुपिताः) रक्षिताः (रक्षमाणाः) अन्यान् रक्षन्तः ॥

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