अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
शम॑ग्नेप॒श्चात्त॑प॒ शं पु॒रस्ता॒च्छमु॑त्त॒राच्छम॑ध॒रात्त॑पैनम्। एक॑स्त्रे॒धाविहि॑तो जातवेदः स॒म्यगे॑नं धेहि सु॒कृता॑मु लो॒के ॥
स्वर सहित पद पाठशम् । अ॒ग्ने॒ । प॒श्चात् । त॒प॒ । शम् । पु॒रस्ता॑त् । शम् । उ॒त्त॒रात् । शम् । अ॒ध॒रात् । त॒प॒ । ए॒न॒म् । एक॑: । त्रे॒धा । विऽहि॑त: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । स॒म्यक् । ए॒न॒म् । धे॒हि॒ । सु॒ऽकृता॑म् । ऊं॒ इति॑ । लो॒के ॥४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
शमग्नेपश्चात्तप शं पुरस्ताच्छमुत्तराच्छमधरात्तपैनम्। एकस्त्रेधाविहितो जातवेदः सम्यगेनं धेहि सुकृतामु लोके ॥
स्वर रहित पद पाठशम् । अग्ने । पश्चात् । तप । शम् । पुरस्तात् । शम् । उत्तरात् । शम् । अधरात् । तप । एनम् । एक: । त्रेधा । विऽहित: । जातऽवेद: । सम्यक् । एनम् । धेहि । सुऽकृताम् । ऊं इति । लोके ॥४.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्नि ! (एनम्) इस [विद्वान्] को (शम्) शान्ति के साथ (पश्चात्) पीछे से, (शम्) शान्तिके साथ (पुरस्तात्) सामने से (तप) प्रतापी कर, (शम्) शान्ति के साथ (उत्तरात्)ऊपर से और (शम्) शान्ति के साथ (अधरात्) नीचे से (तप) प्रतापी कर। (जातवेदः) हेउत्पन्न पदार्थों में विद्यमान [अग्नि] (एकः) अकेला होकर (त्रेधा) तीन प्रकार से [पूर्वाग्नि, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि रूप से] (विहितः) स्थापित किया हुआ तू (एनम्) इस [पुरुष] को (सुकृताम्) सुकर्मियों के (उ) ही (लोके) समाज में (सम्यक्)ठीक रीति से (धेहि) रख ॥११॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य हैकि हवन आदि यज्ञ द्वारा अपने इन्द्रियों को वश में करके पुण्यात्मा पुरुषों मेंस्थान पावें ॥११॥
टिप्पणी
११−(शम्) शान्त्या। सुखेन (अग्ने) हे यज्ञाग्ने (पश्चात्)पृष्ठतः (तप) तप ऐश्वर्ये। तापय। प्रतापिनं कुरु (शम्) (पुरस्तात्) अग्रतः (शम्) (उत्तरात्) उपरिदेशात् (शम्) (अधरात्) अधोगतदेशात् (तप) (एनम्) पुरुषम् (एकः)एकसंख्याकः (त्रेधा) त्रिप्रकारेण। पूर्वाग्निगार्हपत्यदक्षिणाग्निरूपेण (विहितः) स्थापितः (जातवेदः) विद सत्तायाम्-असुन्। हे जातेषु उत्पन्नेषुविद्यमानाग्ने (सम्यक्) यथा तथा। समीचीनम् (एनम्) यजमानम् (धेहि) धारय (सुकृताम्) पुण्यकर्मणाम् (उ) एव (लोके) समाजे ॥
विषय
एकस्त्रेधा विहितः
पदार्थ
१. हे अग्ने परमात्मन् । आप (एनम्) = इस गतमन्त्र के (ईजान) = [यज्ञशील]-पुरुष को (पश्चात) = पश्चिम दिशा से (शं तप) = शान्तिपूर्वक दीप्त जीवनवाला बनाएँ। (उत्तरात् शम्) = उत्तर से इसे शान्ति के साथ दीप्त कीजिए। (अधरान् शं तप) = दक्षिण से भी शान्ति के साथ दीप्त बनाइए। २. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञप्रभो! आप ही (एक:) = एक होते हुए (त्रेधा विहितः) = हमारे जीवनों में तीन प्रकार से स्थापित होते हो। आचार्य, पिता व माता के रूप में आप ही हमारे जीवनों में शान्ति व दीप्ति देते हो। आप (एनम्) = इस ईजान को (उ) = निश्चय से (सुकृताम् लोके) = पुण्यशील पुरुषों के लोकों में (धेहि) = स्थापित कीजिए।
भावार्थ
प्रभु हमें सब और से शान्त व दीप्त जीवनवाला बनाएँ। हमारे जीवनों में प्रभु ही 'आचार्य, पिता व माता' के रूप में स्थापित होते हैं।
भाषार्थ
(अग्ने) हे सर्वाग्रणी ज्योतिर्मय परमेश्वर! (एनम्) इस यजमान को आप, (पश्चात्) पृष्ठभाग से=सुषुम्णा संस्थान से (तप) तपाइए, तपश्चर्या में डालिए, जिस से (शम्) इसको शान्ति प्राप्त हो। (पुरस्तात्) सामने की ओर से, अर्थात् मुखस्थ चक्षु श्रोत्र घ्राण आस्वादन की दृष्टियों से इसे तपाइए, तपश्चर्या में डालिए, जिससे (शम्) इसको शान्ति प्राप्त हो। (उत्तरात्) ऊपर के मस्तिष्क से इसे तपाइए, तपश्चर्या में डालिए, जिससे विचारों की दृष्टि से (शम्) इसे शान्ति प्राप्त हो। (अधरात्) नीचे की ओर से इसे (तप) तपाइए, तपश्चर्या में डालिए, जिससे नीचे की इन्द्रियों से (शम्) इसे शान्ति प्राप्त हो। (जातवेदः) हे सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान तथा विद्यावान् परमेश्वर! आप (एकः) एक हैं, परन्तु वेदों में आप (त्रेधा) त्रिविध स्वरूपों में (विहितः) कथित हुए हैं। हे परमेश्वर आप (एनम्) इस यजमान को (सम्यक्) सम्यक् रूप में (सुकृतां लोके) सुकर्मियों के आश्रम में या समाज में (धेहि) स्थापित कीजिए।
टिप्पणी
[त्रेधा—ओ३म् के “अ, उ, म्” द्वारा कथित तीन-तीन स्वरूप, यथा “ईश्वर-हिरण्यगर्भ-विराट्”; “आदित्य-वायु-अग्नि”, “विश्व-तैजस-प्राज्ञ”।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्ने ! परमेश्वर ! तू (पश्चात्) पीछे से (शं) कल्याणरूप होकर (तप) तप्त हो और आत्मा को तपा, परिपक्व कर, (पुरस्तात् शं तप) आगे से भी कल्याणकारी होकर तपा; (उत्तरात् शम्) उत्तर, ऊपर से भी कल्याणकारी होकर तपा। और (एनम्) इस आत्मा को (अधरात् शं तप) नीचे से भी कल्याणकारी होकर तपा। हे (जातवेदः) सर्वज्ञ, सब पदार्थ के उत्पादक प्रभो ! आप (एकः) एक हैं और तो भी (त्रेधा) तीन रूप, तीन अग्नियों के रूप में (विहितः) विशेष रूप से बतलाये जाते हो। आप (एनं) इस आत्मा को (सुकृताम्) उत्तम कर्म करने वाले पुण्यात्माओं के (लोके) लोक में (सम्यग्) भली प्रकार (धेहि) स्थापित करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O Jataveda Agni, lord omnipresent and omniscient, leading light and fire of life, though One, you are three-way self-manifestive (As Agni on earth, as Vayu in the firmament, and as Aditya in the regions of light, as Vishva, Taijas and Prajna, as Virat, Hiranyagarbha and Ishvara, as Brahma, Vishnu and Mahesha, and as A, U, M of Aum). Pray heat, temper and shine this yajamana to peace, purity and sanctity from the back, from front, from above and from below (in meditation on Sushumna, in watchful perception upfront, in thought and intelligence in the brain and lower senses and emotions in the lowers regions), and thus secure him in the world of noble action and noble fruit with people of noble action and integrity.
Translation
Burn, O Agni, happily behind, happily in front; burn him happily above, happily below; being one, O Jatavedas, triply disposed, set him collectedly in the world of the well doers.
Translation
Let this fire which is present in all the created objects mature him happily from behind, happily from before, happily from north and happily make him ripe in knowledge and action. Let this fire which is one and parted triply makes him place in the state of doers of good acts.
Translation
O God, strengthen this soul from the rear, from before, above, and under, as its well-wisher! O God, the Knower of all created objects, Thou art One, but triply known, place this soul in the world that holds the righteous.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(शम्) शान्त्या। सुखेन (अग्ने) हे यज्ञाग्ने (पश्चात्)पृष्ठतः (तप) तप ऐश्वर्ये। तापय। प्रतापिनं कुरु (शम्) (पुरस्तात्) अग्रतः (शम्) (उत्तरात्) उपरिदेशात् (शम्) (अधरात्) अधोगतदेशात् (तप) (एनम्) पुरुषम् (एकः)एकसंख्याकः (त्रेधा) त्रिप्रकारेण। पूर्वाग्निगार्हपत्यदक्षिणाग्निरूपेण (विहितः) स्थापितः (जातवेदः) विद सत्तायाम्-असुन्। हे जातेषु उत्पन्नेषुविद्यमानाग्ने (सम्यक्) यथा तथा। समीचीनम् (एनम्) यजमानम् (धेहि) धारय (सुकृताम्) पुण्यकर्मणाम् (उ) एव (लोके) समाजे ॥
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