अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 37
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
42
इ॒दं कसा॑म्बु॒चय॑नेन चि॒तं तत्स॑जाता॒ अव॑ पश्य॒तेत॑। मर्त्यो॒ऽयम॑मृत॒त्वमे॑ति॒ तस्मै॑गृ॒हान्कृ॑णुत याव॒त्सब॑न्धु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । कसा॑म्बु । चय॑नेन । चि॒तम् । तत् । स॒ऽजा॒ता॒: । अव॑ । प॒श्य॒त॒ । आ । इ॒त॒ । मर्त्य॑: । अ॒यम् । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । ए॒ति॒ । तस्मै॑ । गृ॒हान् । कृ॒णु॒त॒ । या॒व॒त्ऽसब॑न्धु ॥४.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं कसाम्बुचयनेन चितं तत्सजाता अव पश्यतेत। मर्त्योऽयममृतत्वमेति तस्मैगृहान्कृणुत यावत्सबन्धु ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । कसाम्बु । चयनेन । चितम् । तत् । सऽजाता: । अव । पश्यत । आ । इत । मर्त्य: । अयम् । अमृतऽत्वम् । एति । तस्मै । गृहान् । कृणुत । यावत्ऽसबन्धु ॥४.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गोरक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(इदम्) यह (कसाम्बु)शासन का कीर्तन (चयनेन) इकट्ठा करने से (चितम्) इकट्ठा किया गया है, (सजाताः) हेसजातियो ! (तत्) उस को (अव पश्यत) ध्यान से देखो और (आ) सब ओर से (इत) प्राप्तकरो। (अयम्) यह (मर्त्यः) मनुष्य (अमृतत्वम्) अमरपन (एति) पाता है। (यावत्सबन्धु) जितने तुम समान गोत्रवाले [अर्थात् सपिण्डी] हो सब मिलकर (तस्मै)उस [पुरुष] के लिये (गृहान्) घरों को (कृणुत) बनाओ ॥३७॥
भावार्थ
संसार में गौ आदिउपकारी जीव और बड़े-बड़े घर आदि स्थान युक्ति के साथ क्रम-क्रम से ठीक होते हैं, मनुष्य यह विचार कर उन्नति करें। मनुष्य इसी प्रकार श्रेष्ठ कामों से यश पाता हैऔर सब कुटुम्बी आदि उस का सहाय करते हैं ॥३७॥
टिप्पणी
३७−(इदम्) उपस्थितम् (कसाम्बु) कसगतिशासनयोः-अच्+अबि शब्दे गतौ च-उ प्रत्ययः। कसस्य शासनस्य कीर्तनम् (चयनेन)संग्रहेण (चितम्)। समूहीकृतम् (तत्) शासनकीर्तनम् (सजाताः) हे समानजन्मानः।सगोत्राः (अव पश्यत) अवधानेन ईक्षध्वम् (आ) समन्तात् (इत) प्राप्नुत (मर्त्यः)मनुष्यः (अयम्) (अमृतत्वम्) अमरत्वम्। अमरणम् (एति) प्राप्नोति (तस्मै) मनुष्याय (गृहान्) स्थानानि (कृणुत) कुरुत। रचयत (यावत्सबन्धु) यथा भवति तथा यावन्तःसबन्धवः समानगोत्राः सपिण्डिनो भवथ ते सर्वे यूयं संगत्य ॥
विषय
कसाम्बु
पदार्थ
१. इस मन्त्र में ज्ञानजल को 'कसाम्बु' कहा गया है 'कस गतिशासनयोः'। यह ज्ञानजल हमारी सब गतियों का साधक बनता है और आचार्य से अनुशासन के द्वारा हमें प्राप्त होता है। (इदं कसाम्बु) = यह ज्ञानजल (चयनेन चितम्) = आचार्य के समीप रहकर चयन के द्वारा संचित किया गया है। एक विद्यार्थी आचार्य के समीप रहकर इस ज्ञान का चयन [उपार्जन] करता है। (सजाता:) = [समानकुले जाता:] समान आचार्यकुल में विकसित ज्ञानवाले छात्रो! (तत् अवपश्यत) = उस ज्ञान को तुम सम्यक् देखो और उसके अनुसार (इत) = गतिवाले होओ। २. (अयं मर्त्यः) = यह ज्ञान का चयन करनेवाला मनुष्य (अमृतत्वम् एति) = अमृतत्व को प्राप्त करता है-जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठकर मुक्त हो जाता है। (तस्मै) = उस ज्ञानी मनुष्य के लिए (गृहान् कृणुत) = उत्तम गृहों का निर्माण करो (यावत् सबन्धु) = जब तक उसे प्रभु के साथ समान बन्धुत्व प्राप्त होता है। यह सबन्धुत्व प्राप्त होने पर तो घरों की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
भावार्थ
हम आचार्यकुल में ज्ञानजल का चयन करें। इस ज्ञानजल के द्वारा ही मनुष्य अमृतत्व को प्रास करता है। जब तक हम प्रभु के बन्धु नहीं हो जाते, तब तक हमें इस लोक में निवास के लिए उत्तम घरों का निर्माण करना आवश्यक है।
भाषार्थ
(इदम्) यह (कसाम्बु) कसाम्बु (चयनेन) ईंटों के चयन द्वारा (चितम्) चिना गया है, अर्थात् इस पर ईंटों द्वारा पक्का घाट बना दिया गया है। (सजाताः) हे सम्बन्धियो! (तत्) उस घाट को (अव पश्यत) देखो (एत) आओ। (अयम्) यह (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्य (अमृतत्वम्) मोक्ष की ओर (एति) आता है, (तस्मै) उसके लिए (गृहान् कृणुत) नए घरों वा कमरों का निर्माण करो, (यावत्सबन्धु) सभी बन्धु मिलकर।
टिप्पणी
[मन्त्र में उस सद्गृहस्थ का वर्णन है, जो जन्म-मरण की शृङ्खला से अपने आपको छुड़ाने के लिए संन्यासी या वानप्रस्थी बन कर मोक्षमार्ग का अवलम्बन करता है। उसके लिए सभी बन्धु मिलकर नए आश्रम के लिए यथोचित निवास के निमित्त एक कमरा बनाएँ। साथ ही पानी के प्रबन्ध के लिए “कसाम्बु” पर ईंटों का घाट भी बना दें। कसाम्बु=कस (गतौ)+अम्बु (जल) अर्थात् नदी का चलता जल। या कस (कासार= तलाब)+अम्बु (जल) अर्थात् तालाब बनवाकर उसमें जल का प्रबन्ध, और उस पर ईंटों का घाट। अथवा कस=कसी (कइयां) उनके द्वारा कूप खोद कर जल निकालना और कूप को ईंटों द्वारा चिन देना। कस=कसीभिः यथा “यः शम्बरं पर्यतरत् कसीभिः” (अथर्व० २०.३४.१२)। शम्बर=उदक (निघं० १.१२) अर्थात् कसियों द्वारा खोद कर जल निकालना।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
पुरुषकी उत्पत्ति का रहस्य खोलते हैं। (इदं) यह ‘कसाम्बु’, विकस्वर ‘अम्बु’, वीर्य ही (चयनेन) ‘चयन’ अर्थात् अवयवों के एकत्र संगृहीत होजाने से (चितम्) संचित होकर उत्पन्न होजाता है। हे (सजाता) समान रूपसे इसके साथ उत्पन्न हुए बन्धुजनो ! (आ इत) आओ, इसे (अव पश्यत) देखो (मर्त्यः अयम्) यह मनुष्य अपनी (अमृतत्वम्) अमृतत्व-मोक्ष या पूर्णायु को (एति) प्राप्त कर लेता है। इसलिए (तरमै) इस जीव के लिये (यावत् सबन्धु) जितने भी बन्धु जन हैं (तस्मै गृहान् कृणुत) उसके लिए गृह आदि बनाओ। अथवा—यह (कसाम्बु) पुरुष के शासन की जल है जो चयन या संग्रह द्वारा एकत्र है। हे (सजाताः) समानपद पर स्थित राजगण ! आओ और देखो। (मर्त्यः अयम् अमृतत्वम् एति) यह भर्त्य अब अमृतत्व, मानपद, राजपदको प्राप्त होता है उसके लिये समस्त बन्धुजन मकानात बनावें।
टिप्पणी
(प्र०) ‘चित्तम्’ इति बहुत्र। (द्वि०) ‘पश्यत। आ। इत।’ इति पदपाठः०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
This kasambu, shining beaming liquid energy, distilled, developed and collected through natural process and human efforts, O friends and relatives, watch carefully and realise. Thereby, from here, the mortal man moves toward immortal joy through food and yajna. O kinsmen, build homes for that as far as you can for further development.
Translation
This funeral pile (is) piled with piling; come, ye (his) fellows, look down at it; this mortal goeth to immortality; make ye houses for him according to his kindred.
Translation
O Ye kinsmen, you carefully see and realize this seed-fluid which has been accumulated from all the parts of body. This mortal seed-fluid restores in it the immortality, the soul or spirit in mothers womb). You all the related persons make houses for that (born babe).
Translation
This semen, having been collected in the organs of man is born. O similarly-born relatives, come and see him. This mortal (embodied soul) becomes immortal. Ye, whoever are his relatives, erect buildings for him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(इदम्) उपस्थितम् (कसाम्बु) कसगतिशासनयोः-अच्+अबि शब्दे गतौ च-उ प्रत्ययः। कसस्य शासनस्य कीर्तनम् (चयनेन)संग्रहेण (चितम्)। समूहीकृतम् (तत्) शासनकीर्तनम् (सजाताः) हे समानजन्मानः।सगोत्राः (अव पश्यत) अवधानेन ईक्षध्वम् (आ) समन्तात् (इत) प्राप्नुत (मर्त्यः)मनुष्यः (अयम्) (अमृतत्वम्) अमरत्वम्। अमरणम् (एति) प्राप्नोति (तस्मै) मनुष्याय (गृहान्) स्थानानि (कृणुत) कुरुत। रचयत (यावत्सबन्धु) यथा भवति तथा यावन्तःसबन्धवः समानगोत्राः सपिण्डिनो भवथ ते सर्वे यूयं संगत्य ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal