अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 48
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
48
पृ॑थि॒वीं त्वा॑पृथि॒व्यामा वे॑शयामि दे॒वो नो॑ धा॒ता प्र ति॑रा॒त्यायुः॑। परा॑परैतावसु॒विद्वो॑ अ॒स्त्वधा॑ मृ॒ताः पि॒तृषु॒ सं भ॑वन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थि॒वीम् । त्वा॒ । पृ॒थि॒व्याम् । आ । वे॒श॒या॒मि॒ । दे॒व: । न॒: । धा॒ता । प्र । त॒र॒ति॒ । आयु॑: । परा॑ऽपरैता । व॒सु॒ऽवित् । व: । अ॒स्तु॒ । अध॑ । मृ॒ता: । पि॒तृषु॑ । सम् । भ॒व॒न्तु॒ ॥४.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथिवीं त्वापृथिव्यामा वेशयामि देवो नो धाता प्र तिरात्यायुः। परापरैतावसुविद्वो अस्त्वधा मृताः पितृषु सं भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठपृथिवीम् । त्वा । पृथिव्याम् । आ । वेशयामि । देव: । न: । धाता । प्र । तरति । आयु: । पराऽपरैता । वसुऽवित् । व: । अस्तु । अध । मृता: । पितृषु । सम् । भवन्तु ॥४.४८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों और सन्तान के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे प्रजा ! स्त्री वापुरुष] (पृथिवीम् त्वा) तुझ प्रख्यात को (पृथिव्याम्) प्रख्यात [विद्या] के भीतर (आ वेशयामि) मैं [माता-पिता आचार्य आदि] प्रवेश कराता हूँ, (देवः) प्रकाशस्वरूप (धाता) धाता [पोषक परमात्मा] (नः) हमारी (आयुः) आयु को (प्र तिराति) बढ़ावे। (परापरैता)अत्यन्त पराक्रम से चलनेवाला पुरुष (वः) तुम्हारे लिये (वसुवित्) श्रेष्ठपदार्थों का पानेवाला (अस्तु) होवे, (अध) तब (मृताः) मरे हुए [निरुत्साहीपुरुष] (पितृषु) पितरों [पालक विद्वानों] के बीच (सं भवन्तु) समर्थ होवें ॥४८॥
भावार्थ
माता-पिता आचार्य आदिसन्तानों को उत्तम विद्या देवें, जिससे वे परमेश्वर के भक्त होकर श्रेष्ठ जीवनबितावें और बड़े नेता और श्रेष्ठ धनी होवें और उनके देखने से निरुत्साही भीउत्साही होकर पितरों में स्थान पावें ॥४८॥इस मन्त्र का प्रथम पाद ऊपर आ चुका है-अ०१२।३।२२ ॥
टिप्पणी
४८−(पृथिवीम्) प्रख्याताम् (त्वा) त्वां प्रजां पुरुषं स्त्रियं वा (पृथिव्याम्) प्रख्यातायां विद्यायाम् (आवेशयामि) प्रवेशयामि (देवः)प्रकाशस्वरूपः (नः) अस्माकम् (धाता) पोषकः परमात्मा (प्र तिराति) तरतेर्लेट्।वर्धयतु (आयुः) जीवनम् (परापरैता) परा+परा+इण् गतौ-तृन्। अभ्यासे भूयांसमर्थंमन्यन्ते-निरु० १०।४२। अतिशयेन पराक्रमेण गन्ता (वसुवित्) विद्लृ लाभे-क्विप्।श्रेष्ठपदार्थानां लम्भयिता प्रापयिता (वः) युष्मभ्यम् (अध) अथ (मृताः)त्यक्तप्राणाः। निरुत्साहिनः (पितृषु) पालकेषु विद्वत्सु (सं भवन्तु)संभूतियुक्ताः समर्था भवन्तु ॥
विषय
गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ
पदार्थ
१. (पृथिवीं त्वा) = घर की आधारभूत-अथवा घर का विस्तार करनेवाली तुझको (पृथिव्यामा) = इस पृथिवी पर (आवेशयामि) = सम्यक् गृह में प्रवेश कराता हूँ-बसाता हूँ। वह धाता-सबका धारण करनेवाला (देव:) = प्रकाशमय प्रभु (न:) = हम सबकी (आयुः प्रतिराति) = आयु को बढ़ाता है। इस घर में प्रभु हम सबको दीर्घजीवी बनाएँ। २. प्रभु कहते हैं कि (व:) = तुममें से (परापरैता) [परा परा एत] = खुब दूर-दूर जानेवाला-देश-देशान्तर को जानेवाला यह गृहपति (वसुवित्) = सब वसुओं [धनों] को प्राप्त होनेवाला (अस्तु) = हो। (अध) = अब (मृता:) = जिन्होंने अपनी वासनाओं को मार लिया है, वे (पितृषु संभवन्तु) = पितरों में होनेवाले हों-बानप्रस्थ होकर स्वयं सदा स्वाध्याय में लगे हुए दूसरों के लिए ज्ञान देनेवाले हों।
भावार्थ
एक पति घर में पत्नी को सम्यक् बसाये। दोनों मिलकर घर को उत्तम बनाएँ और दीर्घजीवी बनें। पति धनों का अर्जन करनेवाला हो। गृहस्थ के बाद बासनाओं को जीतकर, वनस्थ बनें और पितरों की कोटि में प्रविष्ट हों।
भाषार्थ
हे मृत मनुष्य ! (पृथिवीं त्वा) पृथिवीरूप तुझको, मैं पुरोहित (पृथिव्याम्) पृथिवी में (आ वेशयामि) पूर्णतया प्रविष्ट करता हूं। (धाता) धारण-पोषणकर्ता (देवः) परमेश्वर देव (नः) हमारी (आयुः) आयु (प्रतिराति) बढ़ाएं। (परापरैता) परे से परे पहुंचा हुआ सर्वव्यापक परमेश्वर (वः) तुम सब को (वसुविद्) वायु आदि श्रेष्ठ सम्पत्तियां प्राप्त करानेवाला (अस्तु) हो। (अधा) और (मृताः) शरीरत्याग किये हुए जीवात्मा (पितृषु) माता-पितादि सम्बन्धियों में (संभवन्तु) पुनः जन्मधारण करें।
टिप्पणी
[श्मशान भूमि में अन्त्येष्टि पर पुरोहित कहता है कि मृत-मनुष्य का शरीर मिट्टी रूप था। अन्त्येष्टि संस्कार द्वारा मृण्मय शरीर को मृद् अर्थात् मिट्टी में मैं पुनः प्रविष्ट करता है। अथर्ववेद में कहा है कि "पृथिवी शरीरम्” (५।९।७) अर्थात् शरीर पृथिवीमय है, मिट्टीरूप है। "Dust thou art to dust reternth."। श्मशान तक गए सम्बन्धियों के लिये पुरोहित कहता है कि परमेश्वर हमारी आयुओं को बढ़ाएं, और सर्वव्यापक परमेश्वर अन्य सब को भी आयु आदि श्रेष्ठ सम्पत्तियां प्रदान करे। तथा मृत व्यक्तियों के जीवात्मा को पुनर्जन्म देकर नए माता-पिता आदि सम्बन्धियों के दर्शन कराए। परापरैता = परा+परा+आ+इ+तृ। संभवन्तु = सम् + भू (भव = शरीरजन्म)। यथा:- "भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्" (योग० १।१९) में भव= उत्पत्तिः। तथा भव= Birth (आप्टे)।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
हे स्त्रि ! पृथिवी ! (पृथिवीम्) के समान व्रतपालन में स्थिर रहने वाली (त्वाम्) तुझको (पृथिव्याम्) इस पृथिवी पर (आवेशययामि) बसाता हूं। (धाता) सर्वपोषक (देवः) देव सब पदार्थों का प्रदाता परमेश्वर (नः) हमें (आयुः) दीर्घजीवन (प्रतिराति) प्रदान करे। हे प्रजागण ! (परापरैता) दूर दूर तक के देशों में जाने वाला व्यापारी (वः) तुम में से (वसुविद्) नाना वसु धनों को प्राप्त करने में समर्थ (अस्तु) हो। (अध) और (मृताः) जो पुरुष मर जायं वे पुनः (पितृषु) पुत्रों के पालक गृहस्थ मां बापों के घरों में पुत्र रूपसे पुनः (सं भवन्तु) उत्पन्न हों।
टिप्पणी
(तृ०) ‘परापरेताः’ (च०) ‘अथामृताः’ इति च सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O vedi, I place and establish you on the earth, and may Dhata, generous and self-refulgent sustainer of the world, protect and promote our life. May the Supreme Lord Divine, farther than the farthest, be the treasure-hold and giver of wealth, honour and excellence for us so that the dead also may reincarnate and come to life again among the parents and live.
Translation
Thee, being earth, I make enter into earth; may god Dhatar lengthen out our life-time; let him that goeth very far away be a finder of good for you; then may the dead come to be among the Fathers.
Translation
I, the performer of Yajna establish this Prithivi, the Yajnavedi on the ground of the earth. May the creator of universe extend the duration of our lives. The man amongst you, who is away with business may be the gainer of wealth Those who got dead (in pursuit of their ventures) may again be born among fathers and mothers.
Translation
O lady, I (the householder) settle you on this earth. May the Creator prolong our lives. O people, may those amongst you, who go far and distantas traders, be able to acquire abundant wealth; and those, who die, be reborn to the elders amongst you.
Footnote
Pt. Damodar Satvalekar refers to the burying of the dead in the first half of the verse. But Pt. Jaidev Vidyalankar takes it as setting of a lady in the household by a household (Prithvi-woman) which is, to me, a better rendering as the very next clause prays for the long life of both. The verse refers to transmigration of soul.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४८−(पृथिवीम्) प्रख्याताम् (त्वा) त्वां प्रजां पुरुषं स्त्रियं वा (पृथिव्याम्) प्रख्यातायां विद्यायाम् (आवेशयामि) प्रवेशयामि (देवः)प्रकाशस्वरूपः (नः) अस्माकम् (धाता) पोषकः परमात्मा (प्र तिराति) तरतेर्लेट्।वर्धयतु (आयुः) जीवनम् (परापरैता) परा+परा+इण् गतौ-तृन्। अभ्यासे भूयांसमर्थंमन्यन्ते-निरु० १०।४२। अतिशयेन पराक्रमेण गन्ता (वसुवित्) विद्लृ लाभे-क्विप्।श्रेष्ठपदार्थानां लम्भयिता प्रापयिता (वः) युष्मभ्यम् (अध) अथ (मृताः)त्यक्तप्राणाः। निरुत्साहिनः (पितृषु) पालकेषु विद्वत्सु (सं भवन्तु)संभूतियुक्ताः समर्था भवन्तु ॥
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