अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 29
श॒तधा॑रंवा॒युम॒र्कं स्व॒र्विदं॑ नृ॒चक्ष॑स॒स्ते अ॒भि च॑क्षते र॒यिम्। ये पृ॒णन्ति॒ प्रच॒ यच्छ॑न्ति सर्व॒दा ते दु॑ह्रते॒ दक्षि॑णां स॒प्तमा॑तरम् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽधा॑रम् । वा॒युम् । अ॒र्कम् । स्व॒:ऽविद॑म् । नृ॒ऽचक्ष॑स: । ते । अ॒भि । च॒क्ष॒ते॒ । र॒यिम् । ये । पृ॒णन्ति॑ । प्र । च॒ । यच्छ॑न्ति । स॒र्व॒दा । ते । दु॒ह्न॒ते॒ । दक्षि॑णाम् । स॒प्तऽमा॑तरम् ॥४.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
शतधारंवायुमर्कं स्वर्विदं नृचक्षसस्ते अभि चक्षते रयिम्। ये पृणन्ति प्रच यच्छन्ति सर्वदा ते दुह्रते दक्षिणां सप्तमातरम् ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽधारम् । वायुम् । अर्कम् । स्व:ऽविदम् । नृऽचक्षस: । ते । अभि । चक्षते । रयिम् । ये । पृणन्ति । प्र । च । यच्छन्ति । सर्वदा । ते । दुह्नते । दक्षिणाम् । सप्तऽमातरम् ॥४.२९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(ते) वे (नृचक्षसः)मनुष्यों के देखनेवाले पुरुष (रयिम् अभि) धन को सब ओर से पाकर (शतधारम्) सैकड़ोंप्रकार से धारण करनेवाले (वायुम्) सर्वव्यापक, (अर्कम्) पूजनीय (स्वर्विदम्) सुखपहुँचानेवाले परमेश्वर को (चक्षते) देखते हैं। (ये) जो पुरुष (सर्वदा) सर्वदा (पृणन्ति) [धन को] भरते हैं (च) और (प्र यच्छन्ति) [सुपात्रों को] देते हैं, (ते) वे लोग (सप्तमातरम्) सात [मन्त्र २८, मस्तक के सात गोलकों] द्वारा बनीहुई (दक्षिणाम्) प्रतिष्ठा को (दुह्रते) दुहते हैं [पाते हैं] ॥२९॥
भावार्थ
पुरुषार्थी परोपकारीपुरुष परमात्मा के दिये धन को प्रत्येक स्थान में प्राप्त करके सुपात्रों कोदेकर यशस्वी होवें, क्योंकि जो पुरुष जितेन्द्रिय होकर धन बढ़ाते और सुपात्रोंको देते हैं, वे ही संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं ॥२९॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−१०।१०७।४ ॥
टिप्पणी
२९−(शतधारम्) बहुप्रकारेण धारकम् (वायुम्)सर्वव्यापकम् (अर्कम्) अर्चनीयम् (स्वर्विदम्) सुखस्य लम्भकं परमात्मानम् (नृचक्षसः) मनुष्याणां द्रष्टारः (ते) प्रसिद्धाः (अभि) अभिगत्य। सर्वतः प्राप्य (चक्षते) पश्यन्ति (रयिम्) धनम् (ये) पुरुषार्थिनः (पृणन्ति) पॄ पालनपूरणयोः।पूरयन्ति (च) (प्रयच्छन्ति) ददति सुपात्रेभ्यः (सर्वदा) (ते) पुरुषाः (दुह्रते)रुडागमः। दुहते। प्राप्नुवन्ति (दक्षिणाम्) वृद्धिक्रियाम्। प्रतिष्ठाम्।सत्क्रियाम् (सप्तमातरम्) म० २८। सप्तसंख्याकानि शीर्षण्यच्छ्रिद्राणि मातॄणिनिर्मातॄणि मातृभूतानि वा यस्यास्तां तथाभूताम् ॥
विषय
प्रभु-पूजन व त्याग
पदार्थ
१. (ते नृचक्षस:) = वे मनुष्यों का ध्यान करनेवाले उनका रक्षण करनेवाले [सर्वभूताहिते रताः] पुरुष उस प्रभु को ही (रयिम् अभिचक्षते) = ऐश्वर्य के रूप में देखते हैं, जो प्रभु (शतधारम्) = शतवर्षपर्यन्त हमारा धारण करनेवाले हैं। (वायुम्) = गति द्वारा सब बुराइयों का खण्डन करनेवाले हैं। (अर्कम्) = पूजनीय हैं व सूर्यसम दीप्त हैं। (स्वर्विदम्) = सुख व प्रकाश को प्राप्त करनेवाले हैं। २. (ये) = जो प्रभु के पुजारी (पृणन्ति) = [पृणाति protect] रक्षण का कार्य करते हैं, (च) = और (सर्वदा प्रयच्छन्ति) = सदा दान देनेवाले होते हैं, (ते) = वे (दक्षिणाम) = दिये हुए दान को (सप्तमातरम् दहते) = सात गुणा मपे हुए को दोहते हैं। दिया हुआ दान उन्हें ससगुणित होकर पुनः प्रास होता है।
भावार्थ
हम भूतहित में प्रवृत्त हुए-हुए प्रभु का पूजन करनेवाले बनें-प्रभु को ही अपना ऐश्वर्य समझें। धनों का दान देनेवाले बनें। रक्षणात्मक कर्मों में इनका विनियोग करें। ये दान दिये हुए धन सप्तगुणित होकर पुन: हमें प्राप्त होते हैं।
भाषार्थ
(नृचक्षसः) नर-नारियों के उपकार में दृष्टिवाले (ते) वे योगीजन (शतधारम्) सैकड़ों अङ्गोंपाङ्गों तथा नस-नाड़ियों के धारण-पोषण करनेवाली (वायुम्) प्राणवायु को, तथा (स्वर्विदम्) मस्तिष्करूपी द्युलोक में विद्यमान (अर्कम्) सहस्रारचक्ररूपी सूर्य को (रयिम्) वास्तविक सम्पत्ति (अभिचक्षते) कहते हैं। (ये) जो योगीजन (सर्वदा) सदा (पृणन्ति) प्रजा का पालन करते (च) और (प्र यच्छन्ति) इस अध्यात्मविद्या को प्रदान करते हैं, (ते) वे (सप्तमातरम्) सात लोकों की माता परमेश्वर को (दक्षिणाम्) दक्षिणारूप में (दोहते) दोह लेते हैं।
टिप्पणी
[स्वः=द्यौः=दिवं यश्चक्रे मूर्धानम् (अथर्व० १०.७.३२), अतः स्वः=मूर्धा, मस्तिष्क। अर्कम्= सहस्रारचक्र, सूर्यसदृश प्रकाश वाला है। उसके हजार अरे सूर्य की हजारों रश्मियों के सदृश हैं। सप्तमातरम्=सात लोक=भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्। दक्षिणाम्=परोपकार तथा योगरूपी यज्ञ की दक्षिणा मिलती है—परमेश्वर का स्वरूप दर्शन।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
(शतधारं) सैकड़ों धार वाले मेघ के समान सैकड़ों के परिपोषक, (वायुम्) नित्यगतिशील, वायु के समान सर्वव्यापक (अर्कम्) सूर्य के समान तेजस्वी, एवं अर्चना करने योग्य और (स्वर्विदम्) स्वः-सुख के प्राप्त करने और कराने वाले परमानन्दमय परमेश्वर को (ते) वे (नृचक्षसः) उस परमपुरुष सर्वनेता परमेश्वर को साक्षात् करने वाले (रयिम्) सर्वैश्वर्य रूप, प्राणरूप, बलरूप ही (अभि चक्षते) साक्षात् करते हैं। और (ये) जो पुरुष (सर्वदा) सब कालों में (पृणन्ति) समस्त जीवों का पालन करते हैं और उनको (प्रयच्छन्ति च) अन्न, वस्त्र, आश्रय सुख प्रदान करते हैं. (ते) वे (सप्त मातरम्) सातों प्रकार के अन्नों वाली अथवा सात निर्मातृ पदार्थों अर्थात् सप्त धातुओं वाली, (दक्षिणां) दक्षिणा रूप पृथिवी को (दुह्रते) दोहते हैं वे पृथिवी के समस्त जीवनोपयोगी उत्तम उत्तम सार पदार्थों को प्राप्त करते हैं। ‘दक्षिणा वै यज्ञानां पुरोगवी’। ऐ० ६। ३५॥ अन्नं दक्षिणा। ऐ० ६। ३ तै० आ० में ‘इमं समुद्रं शतधारमुत्सं’....‘घृतं दुहानामदिति जन्याग्ने’ इत्यादि में शतधार उत्स=मेघ और अदिति=गौ और पृथिवी।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘चक्षतहविम्। (तृ०) यच्छन्ति संगमे’ (च०) ‘दुहते’ इति ऋ०। (प्र० द्वि०) ‘इमं साहस्रं शतधारमुत्सं व्यच्यमानं सरिरस्य मध्ये’। इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Men of vision and discrimination who watch life and humanity have a vision of the eternal wealth of Divinity, omnipresent as Vayu, self-refulgent as Sun, and Infinite Bliss Itself, which bears all a thousand ways, and radiates and flows in a thousand streams into human consciousness. Those distill this sublime gift of Divinity, mother of seven worlds, Bhu, Bhuvah, Svah, Mahah, Janah, Tapah, Satyam, who always fill their consciousness with this presence and express it as a gift for others.
Translation
A hundred-streamed Vayu, a heaven finding sun wealth, do those men-beholders look upon; who so bestow and present always, they milk a sacrificial gift having seven mothers.
Translation
Those men of discrimination who see within them the Divinity who is the revealer of speech having varieties of subjects, who is All-bliss and worship-able, and who protects the people and gives wealth to deservinging ones, always milk out Dakshina, the plentiful grain proterty which observes the seven elementsx of the body.
Translation
The seers of God, who consider the pleasure-giving, Radiant, strong and Bounteous God with His manifold blessings, the source of all riches and strength and life, always nourish and cherish all the creatures. They derive all the desired objects from the mother-earth, the source of seven kinds nf corns and metals.
Footnote
Pt. Damodar Satvalekar translates the verse as: Those who make the right use of money after earning it, get honor and glory in this world and happiness in the world hereafter. The verse also occurs as Rig, 10-107-4.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२९−(शतधारम्) बहुप्रकारेण धारकम् (वायुम्)सर्वव्यापकम् (अर्कम्) अर्चनीयम् (स्वर्विदम्) सुखस्य लम्भकं परमात्मानम् (नृचक्षसः) मनुष्याणां द्रष्टारः (ते) प्रसिद्धाः (अभि) अभिगत्य। सर्वतः प्राप्य (चक्षते) पश्यन्ति (रयिम्) धनम् (ये) पुरुषार्थिनः (पृणन्ति) पॄ पालनपूरणयोः।पूरयन्ति (च) (प्रयच्छन्ति) ददति सुपात्रेभ्यः (सर्वदा) (ते) पुरुषाः (दुह्रते)रुडागमः। दुहते। प्राप्नुवन्ति (दक्षिणाम्) वृद्धिक्रियाम्। प्रतिष्ठाम्।सत्क्रियाम् (सप्तमातरम्) म० २८। सप्तसंख्याकानि शीर्षण्यच्छ्रिद्राणि मातॄणिनिर्मातॄणि मातृभूतानि वा यस्यास्तां तथाभूताम् ॥
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