अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 44
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
38
इ॒दं पूर्व॒मप॑रंनि॒यानं॒ येना॑ ते॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒ परे॑ताः। पु॑रोग॒वा ये अ॑भि॒शाचो॑ अस्य॒ तेत्वा॑ वहन्ति सु॒कृता॑मु लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । पूर्व॑म् । अप॑रम् । नि॒ऽयान॑म् । येन॑ । ते॒ । पूर्वे॑ । पि॒तर॑: । परा॑ऽइता: । पु॒र॒:ऽग॒वा: । ये । अ॒भि॒ऽशाच॑: । अ॒स्य॒ । ते । त्वा॒ । व॒ह॒न्ति॒ । सु॒ऽकृता॑म् । ऊं॒ इति॑ । लो॒कम् ॥४.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं पूर्वमपरंनियानं येना ते पूर्वे पितरः परेताः। पुरोगवा ये अभिशाचो अस्य तेत्वा वहन्ति सुकृतामु लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । पूर्वम् । अपरम् । निऽयानम् । येन । ते । पूर्वे । पितर: । पराऽइता: । पुर:ऽगवा: । ये । अभिऽशाच: । अस्य । ते । त्वा । वहन्ति । सुऽकृताम् । ऊं इति । लोकम् ॥४.४४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों की सेवा का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (इदम्)यह (पूर्वम्) पहिला और (अवरम्) पिछला (नियानम्) निश्चित मार्ग है, (येन) जिस से (ते) तेरे (पूर्वे) पहिले [प्रधान] (पितरः) पितर लोग (परेताः) बल के साथ गयेहैं। (ये) जो [पितर] (अस्य) इस [मार्ग] के (पुरोगवाः) आगे चलनेवाले और (अभिशाचः)सब प्रकार उपदेश करनेवाले हैं, (ते) वे [पितर] (त्वा) तुझको (सुकृताम्)सुकर्मियों के (उ) ही (लोकम्) समाज में (वहन्ति) पहुँचाते हैं ॥४४॥
भावार्थ
पितरों अर्थात्विद्वान् जनों की सेवा करना प्राचीन और अर्वाचीन अर्थात् सार्वभौम और सर्वकालीनधर्म है, उन की सेवा से मनुष्य योग्य होकर विद्वानों में प्रतिष्ठा पाता है॥४४॥
टिप्पणी
४४−(इदम्) पितृसेवारूपमाचरणम् (पूर्वम्) पुरातनम् (अपरम्) अर्वाचीनम् (नियानम्) निश्चितमार्गः (येन) मार्गेण (ते) तव (पूर्वे) प्रथमपदस्थाः प्रधानाः (पितरः) पालका विद्वांसः (परेताः) परा प्राधान्येन गताः (पुरोगवाः)गोरतद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। इति पुरः+गो-टच्, तत्पुरुषे समासान्तः। अग्रगामिनः (ये) पितरः (अभिशाचः) वहश्च। पा० ३।२।६४। अभि+शच व्यक्तायां वाचि−ण्विप्रत्ययोबाहुलकात् सर्वत उपदेशकाः (अस्य) नियानस्य। निश्चितमार्गस्य (ते) पितरः (त्वा)त्वां पितृसेवकम् (वहन्ति) प्रापयन्ति (सुकृताम्) पुण्यकर्मणाम् (उ) निश्चयेन (लोकम्) समाजम् ॥
विषय
'पुरोगवाः अभिशाच:' पितरः
पदार्थ
२. (इदम्) = यह (पूर्वम्) = पहला (नियानम्) = जाने का मार्ग है, अर्थात् प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम है तथा (अपरम्) = उसके बाद दूसरा गृहस्थ का मार्ग है, (येना) = जिससे (ते) = वे (पूर्वे) = अपना ठीक प्रकार से पालन व पूरण करनेवाले (पितर:) = रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोग (परा-इता:) = पार को प्राप्त हो गये हैं। ब्रह्मचर्य व गृहस्थ को ठीक प्रकार से पूर्ण करके वे वनस्थ हुए हैं। २. ये जो पितर (पुरोगवा:) = अग्रगतिवाले हैं और (अस्य अभिशाच:) = [शाच व्यक्तायां वाचि] इस मार्ग के उत्तम उपदेश हैं, (ते) = वे (त्वा) = तुझे मार्ग के उपदेश के द्वारा (उ) = निश्चय से (सुकृतां लोकम्) = पुण्यशील लोगों के लोक को (वहन्ति) = प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
'ब्रह्मचर्याश्रम' जीवनयात्रा का पहला प्रयाण है, 'गृहस्थ' दूसरा। दोनों प्रयाणों को पार करके 'वानप्रस्थ' में प्रवेश करनेवाले पितर स्वयं अप्रगतिवाले होते हैं और हमें भी मार्ग का उपदेश देकर पुण्यकर्मा लोगों के लोक में प्राप्त कराते हैं।
भाषार्थ
(पूर्वम्) पूर्व अर्थात् अनादि काल का और (अपरम्) इस वर्तमान काल का (इदम्) यह (नियानम्) नियम मार्ग है, (येन) जिस नियत मार्ग से (ते) तेरे (पूर्वे पितरः) पूर्वपूरुष (परेताः) गृहस्थ जीवन परित्याग कर, परे के आश्रमों में जाते रहे हैं। (ये) जो (अस्य) इस नियत मार्ग के (पुरोगवाः) अग्रणी हैं, नेता हैं, वे (अभिशाचः) इस नियत मार्ग के साक्षात् प्रवक्ता हैं। (ते) वे (त्वा) हे सद्गृहस्थ! तुझे, सदुपदेश देकर (सुकृताम्) सुकर्मियों के (लोकम्) आश्रम में (उ) निश्चय ही (वहन्ति) ले जाते हैं।
टिप्पणी
[परेताः=परा+इताः (गताः)। पुरोगवाः=अग्रगामिनः। अभिशाचः=अभि+शच् व्यक्तायां वाचि।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
हे पुरुष ! (इदं) यह मानुष देह ही वह (नियानम्) रथ है जो (पूर्वम्, अपरम्) पहले रहा और बाद में भी विद्यमान् है। (येन) जिसके द्वारा (ते) तेरे (पूर्वे पितरः) पहले पालक, पिता, पितामह आदि (परा-इताः) अपमा जीवन बिताकर इस लोक से चल बसे। (अस्य) इस देह में लगे ये (अभिशाचः) सब प्रकार से शक्तिमान् और (पुरोगवाः) आगे लगे बैलों के समान आगे आगे जानेवाले इन्द्रिय रूप प्राण हैं (ते) वे (त्वा) मुझ को (सुकृताम्) पुण्याचारवान् पुरुषों के (लोकम्) लोकको (वहन्ति) ले जावें।
टिप्पणी
(तृ०) ‘अभिषाचः’ इति सायणाभिमतो ह्विटनिसम्मतश्च।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
This is your path ancient and modem by which your ancient forefathers have gone, those that were pioneers as well as those who were admirers and followers of it. May they lead you too to the world of the noble performers of pious action.
Translation
This (is) the former, the after down-track, by which thy former Fathers went away; they who are the forerunners, the followers of it, they carry thee to the world of the welldoing.
Translation
O man, This is the first and this is this recent path by which your fore-father traversed to wards life goal. They who are the leaders of this path and are now treading it make you reach the state to be occupied by the men of good acts.
Translation
O man, this body is the chariot that was before and shall be provided even hereafter and by which thy fore-fathers have gone to the other world. These all-powerful bullocks, that yolked in front of this chariot are carrying thee to the world of the virtuous people.
Footnote
The five senses of knowledge and five organs of action are spoken of as bullocks carrying the body-chariot to the destination of the soul.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४४−(इदम्) पितृसेवारूपमाचरणम् (पूर्वम्) पुरातनम् (अपरम्) अर्वाचीनम् (नियानम्) निश्चितमार्गः (येन) मार्गेण (ते) तव (पूर्वे) प्रथमपदस्थाः प्रधानाः (पितरः) पालका विद्वांसः (परेताः) परा प्राधान्येन गताः (पुरोगवाः)गोरतद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। इति पुरः+गो-टच्, तत्पुरुषे समासान्तः। अग्रगामिनः (ये) पितरः (अभिशाचः) वहश्च। पा० ३।२।६४। अभि+शच व्यक्तायां वाचि−ण्विप्रत्ययोबाहुलकात् सर्वत उपदेशकाः (अस्य) नियानस्य। निश्चितमार्गस्य (ते) पितरः (त्वा)त्वां पितृसेवकम् (वहन्ति) प्रापयन्ति (सुकृताम्) पुण्यकर्मणाम् (उ) निश्चयेन (लोकम्) समाजम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal