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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 42
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    337

    यं ते॑ म॒न्थंयमो॑द॒नं यन्मां॒सं नि॑पृ॒णामि॑ ते। ते ते॑ सन्तु स्व॒धाव॑न्तो॒ मधु॑मन्तोघृत॒श्चुतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ते॒ । म॒न्थम् । यम् । ओ॒द॒नम् । यत् । मां॒सम् । नि॒ऽपृ॒णामि॑ । ते॒ । ते । ते॒ । स॒न्तु॒ । स्व॒धाऽव॑न्त: । मधु॑ऽवन्त: । घृ॒त॒ऽश्चुत॑: ॥४.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं ते मन्थंयमोदनं यन्मांसं निपृणामि ते। ते ते सन्तु स्वधावन्तो मधुमन्तोघृतश्चुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । ते । मन्थम् । यम् । ओदनम् । यत् । मांसम् । निऽपृणामि । ते । ते । ते । सन्तु । स्वधाऽवन्त: । मधुऽवन्त: । घृतऽश्चुत: ॥४.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 42
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों की सेवा का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे पितृगण !] (यम्)जिस (मन्थम्) मथने से प्राप्त हुए पदार्थ [नवनीत आदि] और (यम्) जिस (ओदनम्) भातआदि [सुसंस्कृत भोजन] को (ते) तेरे लिये और (यत्) जिस (मांसम्) मननसाधक वस्तु [बुद्धिवर्धक मीठे फल बादाम अक्षोट आदि के गूदे, मींग] को (ते) तेरे लिये (निपृणामि) मैं भेंट करता हूँ। (ते) वे [भोजन पदार्थ] (ते) तेरे लिये (स्वधावन्तः) आत्मधारण शक्तिवाले, (मधुमन्तः) मधुर से गुणवाले और (घृतश्चुतः) घी [सार रस] सींचनेवाले (सन्तु) होवें ॥४२॥

    भावार्थ

    गृहस्थ लोग विद्वान्गुणी माता-पिता आदि बड़ों की सेवा घृत, दुग्ध आदि से किया करें, जिससे वे पितरलोग बलवान् रह कर उत्तम-उत्तम कर्म करने में समर्थ होवें ॥४२॥इस मन्त्र काउत्तरार्द्ध ऊपर आ चुका है-अ० —१८।३।६८। तथा १८।४।२५ ॥

    टिप्पणी

    ४२−(यम्) (ते) तुभ्यम् (मन्थम्) विलोडनेन प्राप्तं नवनीतादिपदार्थम् (यम्) (ओदनम्) भक्तम्।सुसंस्कृतान्नम् (यत्) (मांसम्) म० २०। मनसाधकं बुद्धिवर्धकं पदार्थम् (निपृणामि) पॄ पालनपूरणयोः। नियमेन पूरयामि। समर्पयामि (ते) तुभ्यम्। अन्यत्पूर्ववत्-अ० १८।३।६८ तथा १८।४।२५ ॥

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    विषय

    मन्थ, ओदन, मांस

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जीवन को उत्तम बनाने के लिए भोजन में सात्विकता आवश्यक है, अत: प्रभु कहते हैं कि हे जीव! (ते) = तेरे लिए (यम्) = जिस (मन्थम्) = दधि मन्थन से उत्पन्न मठा आदि पदार्थ को (यम्) = जिस (ओदनम्) = भात को व (यत्) = जिस (मांसम्) = [fleshy part of fruits] फल के गूदे को (ते) = तेरे लिए (निपृणामि) = देता हूँ-सुरक्षित करता हूँ, (ते) = वे मन्थ, ओदन व मांसरूप पदार्थ (ते) = तेरे लिए (स्वधावन्त:) = आत्मधारण शक्तिवाले हों-तेरे शरीर का धारण करनेवाले हों। (मधुमन्त:) = तेरे जीवन को मधुर बनानेवाले हों तथा (घृतश्चुत:) = ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करानेवाले

    भावार्थ

    हम 'मठा, भात व फल के गूदे' आदि सात्त्विक भोजनों को करते हुए शरीर का धारण करनेवाले, हृदयों में माधुर्य से पूर्ण तथा मस्तिष्क में दीप्त ज्ञानवाले बनें।

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    भाषार्थ

    हे पितृवर्ग! (ते ते) आप में से प्रत्येक के प्रति (यम् मन्थम्) जिस मठे को, (यम् ओदनम्) जिस ओदन को, (यन्मांसम्) जिस फल के गुद्दे को आप का पुत्र (निपृणामि) मैं आप के पालनार्थ भेंट करता हूँ, (ते) वे सब भेटें (ते) आप के (स्वधावन्तः) धारण-पोषण करनेवाली सात्त्विक हों, (मधुमन्तः) मधुर हों, तथा (घृतश्चुतः) घृतपूर्ण (सन्तु) हों।

    टिप्पणी

    [मन्थ मधुर हो, ओदन घृतपूर्ण हो, फल स्वधारूप हों। मांसम्=The fleshy part of a fruit (आप्टे)। वेदों में यत्र-तत्र पश्वादि के मांस के भक्षण का निषेध है। मांस-देखो मन्त्र ४(२०)।]

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    विषय

    देवयान और पितृयाण।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! मैं परमेश्वर (यं) जिस (मन्थम्) मथे हुए दहि को (यम् ओदनम्) और जिस भात को और (यत् मांसम्) जिस मन चाहे परम अन्नादि पदार्थ को (ते) तेरे लिये (निपृणामि) प्रदान करता हूं (ते) वे समस्त पदार्थ (ते) तेरे लिये (स्वधावन्तः) अपने शरीरों को पुष्टि देने वाले, (मधुमन्तः) मधुर रसवाले और (घृतश्चुतः) घृत के समान तेज, वीर्य के देने वाले (सन्तु) हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    What barley meal mixed and stirred with milk, what rice meal or cheese or fruit pulp I offer to you, may all those be full of energy, honey sweet and abundant in ghrta.

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    Translation

    What stir about for thee, what rice-dish, what flesh I offer to thee, be they for thee rich in svadha, rich in honey, dripping with ghee,

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    Translation

    O Man let all of them whatsoever as the mingled preparation, whatever of the cooked rice and whatever as the central part of fruits I persent to you be mixed with palatobleeatables sweet and enriched with butter.

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    Translation

    O man, whatever churned curd, cooked rice and wholesome pitty articles of food I (God) provide to satisfy thy hunger, may they be invigorating, sweet and energising to thee.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४२−(यम्) (ते) तुभ्यम् (मन्थम्) विलोडनेन प्राप्तं नवनीतादिपदार्थम् (यम्) (ओदनम्) भक्तम्।सुसंस्कृतान्नम् (यत्) (मांसम्) म० २०। मनसाधकं बुद्धिवर्धकं पदार्थम् (निपृणामि) पॄ पालनपूरणयोः। नियमेन पूरयामि। समर्पयामि (ते) तुभ्यम्। अन्यत्पूर्ववत्-अ० १८।३।६८ तथा १८।४।२५ ॥

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