अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 52
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
34
एदं ब॒र्हिर॑सदो॒मेध्यो॑ऽभूः॒ प्रति॑ त्वा जानन्तु पि॒तरः॒ परे॑तम्। य॑थाप॒रु त॒न्वं संभ॑रस्व गात्राणि ते॒ ब्रह्म॑णा कल्पयामि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒दम् । ब॒र्हि: । अ॒स॒द॒: । मेध्य॑: । अ॒भू॒: । प्रति॑ । त्वा॒ । जा॒न॒न्तु॒ । पि॒तर॑: । परा॑ऽइतम् । य॒था॒ऽप॒रु । त॒न्व॑म् । सम् । भ॒र॒स्व॒ । गात्रा॑णि । ते॒ । ब्रह्म॑णा । क॒ल्प॒या॒मि॒ ॥४.५२॥
स्वर रहित मन्त्र
एदं बर्हिरसदोमेध्योऽभूः प्रति त्वा जानन्तु पितरः परेतम्। यथापरु तन्वं संभरस्व गात्राणि ते ब्रह्मणा कल्पयामि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इदम् । बर्हि: । असद: । मेध्य: । अभू: । प्रति । त्वा । जानन्तु । पितर: । पराऽइतम् । यथाऽपरु । तन्वम् । सम् । भरस्व । गात्राणि । ते । ब्रह्मणा । कल्पयामि ॥४.५२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों और सन्तान के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (इदम्)इस (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आ असदः) तू बैठा है और (मेध्यः) पवित्र (अभूः) हुआहै, (पितरः) पितर लोग (त्वा) तुझे (परेतम्) प्रधानता को पहुँचा हुआ (प्रति)प्रत्यक्ष (जानन्तु) जानें। (यथापरु) गाँठ-गाँठ में (तन्वम्) उपकार शक्ति को (सम् भरस्व) भर दे, (ते) तेरे (गात्राणि) गातों को (ब्रह्मणा) वेदद्वारा (कल्पयामि) समर्थ करता हूँ ॥५२॥
भावार्थ
जब मनुष्य विद्या आदिउत्तम गुणों से शुद्ध पवित्र हो जावे, विद्वान् उसकी प्रतिष्ठा करें और वहवेदज्ञान से समर्थ होकर अपना सब सामर्थ्य परोपकार में लगावे ॥५२॥
टिप्पणी
५२−(इदम्)दृश्यमानम् (बर्हिः) उच्चासनम् (आ असदः) आरूढवानसि (मेध्यः) पवित्रः (अभूः) (प्रति) प्रत्यक्षम् (त्वा) त्वाम् (जानन्तु) विदन्तु (पितरः) (परेतम्) पराप्राधान्यमितं प्राप्तम् (यथापरु) परौ परौ ग्रन्थौ ग्रन्थौ (तन्वम्) तनूम्।उपकारशक्तिम् (सम्) सम्यक् (भरस्व) धारय (गात्राणि) अङ्गानि (ते) तव (ब्रह्मणा)वेदज्ञानेन (कल्पयामि) समर्थयामि ॥
विषय
मेध्य
पदार्थ
१. हे पुरुष! तू (इदं बर्हिः आ असद:) = इस वासनाशून्य हृदय में सर्वथा आसीन हो। हृदय को वासनाशून्य बना। इसप्रकार (मेध्यः अभू) = पवित्र बन। (पितर:) = माता, पिता व आचार्य (त्वा) = तुझे (परेतम्) = विषयों से परे गया हुआ (प्रतिजानन्तु) = प्रतिदिन जानें। तू दिन-प्रतिदिन वासनाओं से दूर ही होता चल। २. विषयों से दूर होकर (यथापरु) = एक-एक पर्व का अतिक्रमण न करते हुए (तन्वं संभरस्व) = शरीर का भरण करनेवाला बन। संयम के कारण तेरे शरीर का एक-एक जोड़ बड़ा ठीक हो। प्रभु कहते हैं कि-(ते गात्राणि) = विषयों से दूर रहनेवाले तेरे अंग-प्रत्यंग को (ब्रह्मणा) = [ब्रह्म वेदः तपः तत्त्वम्] ज्ञान व तप के द्वारा (कल्पयामि) = शक्तिशाली बनाता हूँ। तेरे शरीर को मैं शक्ति व ज्ञान से सम्पन्न करता हूँ।
भावार्थ
हम हृदय को वासनाशून्य बनाएँ, पवित्र जीवनवाले हों। पितर हमारे जीवन से प्रीणित हों। हम शरीर के एक-एक पर्व का भरण करें। हमारे जीवन ज्ञान व तप के द्वारा शक्तिशाली बनें।
भाषार्थ
हे आश्रम परिवर्तन करनेवाले सद्गृहस्थ! तू (इदम्) इस (बर्हिः) कुशासन पर (असदः) बैठा है। और (मेध्यः) यज्ञाधिकारी तथा पवित्र (अभूः) हो गया है (परेतम्) परले आश्रम में आए हुए (त्वा) तुझ को (पितरः) आश्रमवासी पितर (प्रति जानन्तु) जान लें, और आश्रम में प्रवेश की स्वीकृति प्रदान करें। हे आश्रम परिवर्तन करनेवाले ! (यथापरु) प्रत्येक अङ्ग-प्रत्यङ्ग की दृष्टि से (तन्वम्) अपने शरीर को, नए आश्रम में जाकर (संभरस्व) सम्यक् प्रकार से परिपुष्ट करते रहना। हे नवाश्रमवासिन्! (ब्रह्मणा) मन्त्रोक्त विधियों द्वारा मैं (ते) तेरे (गात्राणि) अङ्गों-प्रत्यङ्गो को (कल्पयामि) सामर्थ्ययुक्त करता हूँ।
टिप्पणी
[मन्त्र में पुरोहित की उक्तियां हैं। वनस्थ या संन्यस्त हो जाने पर शरीर को अति तपश्चर्या द्वारा सुखाना न चाहिये। अपितु शरीर के अङ्गों-प्रत्यङ्गो की दृष्टि से शरीर का भरण-पोषण करना चाहिये, ताकि आश्रम के कर्तव्यों का पालन हो सके।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
हे पुरुष ! तू (इदं) इस (बर्हिः) कुशा के बने आसन पर (आ असदः) बैठ। और (मेध्यः अभूः) तू पवित्र, यज्ञज्ञोग्य हो। (पितरः) तेरे पालक पिता माता आदि जन (परेतम्) लोकान्तर या देशान्तर में दूर चले जाने पर भी (वा) तुझे (प्रतिजानन्धु) स्मरण करें। तू (यथा परु) प्रत्येक पर्व पर्व या शरीर के प्रत्येक जोड़ की बिना उपेक्षा किये अपने (तन्वं) शरीर को (सं भरस्व) अच्छी प्रकार पुष्ट कर । मैं विद्वान् पुरुष या अमृत जीवन शक्ति (ते गात्राणि) तेरे समस्त गात्रों की (ब्रह्मणा) ब्रह्म, बल, वीर्य, सामर्थ से (कलायामि) युक्त करता हूं। यदमृतं तद् ब्रह्म । गो० ५ । ३ । ४ ॥
टिप्पणी
(तृ०) ‘यथा पूरु’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O man, self-raised and sanctified, you now occupy this holy seat. Let the parental seniors know and recognise you thus rising higher and higher. Fill in and accomplish your body and mind part by part completely. I order and sanctify the parts and systems of your personality with Vedic mantras and initiate you into higher life.
Translation
Thou hast sat upon this barhis, thou hast become sacrificial; let the Fathers acknowledge thee who art departed; collect thy body according to its joints; I arrange thy members with brahman.
Translation
O Man, you becoming pure and righteous ascend to this excellent distinction as elders may remember you after your death. You strengthen your body limb by together. I make your limbs stout and sturdy with food.
Translation
O man, sit on this seat of Kusha-grass and be pure and worthy to perform the sacrifice. The elders may remember thee even when thou hast gone to distant lands. Strengthen thy body taking care of every organ of it. I (the learned preceptor) invigorate all thy organs of thy body with rich food
Footnote
Brahma: food, wealth, Vedic lore and God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५२−(इदम्)दृश्यमानम् (बर्हिः) उच्चासनम् (आ असदः) आरूढवानसि (मेध्यः) पवित्रः (अभूः) (प्रति) प्रत्यक्षम् (त्वा) त्वाम् (जानन्तु) विदन्तु (पितरः) (परेतम्) पराप्राधान्यमितं प्राप्तम् (यथापरु) परौ परौ ग्रन्थौ ग्रन्थौ (तन्वम्) तनूम्।उपकारशक्तिम् (सम्) सम्यक् (भरस्व) धारय (गात्राणि) अङ्गानि (ते) तव (ब्रह्मणा)वेदज्ञानेन (कल्पयामि) समर्थयामि ॥
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