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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    65

    ई॑जा॒नश्चि॒तमारु॑क्षद॒ग्निं नाक॑स्य पृ॒ष्ठाद्दिव॑मुत्पति॒ष्यन्। तस्मै॒ प्रभा॑ति॒ नभ॑सो॒ ज्योति॑षीमान्त्स्व॒र्गः पन्थाः॑ सु॒कृते॑ देव॒यानः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒जा॒न: । चि॒तम् । आ । अ॒रु॒क्ष॒त् । अ॒ग्निम् । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठात् । दिव॑म् । उ॒त्ऽप॒ति॒ष्यन् । तस्मै॑ । प्र । भा॒ति॒। नभ॑स: । ज्योति॑षीऽमान् । स्व॒:ऽग: । पन्था॑ । सु॒ऽकृते॑ । दे॒व॒ऽयान॑: ॥४.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईजानश्चितमारुक्षदग्निं नाकस्य पृष्ठाद्दिवमुत्पतिष्यन्। तस्मै प्रभाति नभसो ज्योतिषीमान्त्स्वर्गः पन्थाः सुकृते देवयानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईजान: । चितम् । आ । अरुक्षत् । अग्निम् । नाकस्य । पृष्ठात् । दिवम् । उत्ऽपतिष्यन् । तस्मै । प्र । भाति। नभस: । ज्योतिषीऽमान् । स्व:ऽग: । पन्था । सुऽकृते । देवऽयान: ॥४.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश।

    पदार्थ

    (ईजानः) यज्ञ करचुकनेवाले पुरुष ने (नाकस्य) अत्यन्त सुख के (पृष्ठात्) ऊपरी स्थान से (दिवम्)प्रकाशस्वरूप परमात्मा की ओर (उत्पतिष्यन्) चढ़ने की इच्छा करके, (चितम्) चुनीहुई (अग्निम्) अग्नि को (आ) सब ओर (अरुक्षत्) प्रकट किया है। (तस्मै) उस (सुकृते) सुकृती पुरुष के लिये (नभसः) आकाश से [खुले स्थान से] (ज्योतिषीमान्)ज्योतिष्मती बुद्धिवाला (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला, (देवयानः) विद्वानों केचलने योग्य (पन्थाः) मार्ग (प्र भाति) चमकता जाता है ॥१४॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य अत्यन्त सुखसे परमात्मा की प्राप्ति में ऊँचा होकर अपना कर्तव्यरूप यज्ञ पूरा कर चुकता है, उसकी बुद्धि ऐसी चमकती है, जैसे सूर्य खुले निर्मल आकाश में ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(ईजानः)समाप्तयज्ञः पुरुषः (चितम्) हवनपदार्थैः संचितम् (आ) समन्तात् (अरुक्षत्)प्रादुष्कृतवान् (अग्निम्) यज्ञाग्निम् (नाकस्य) अतिसुखस्य (पृष्ठात्)उपरिदेशात् (दिवम्) प्रकाशस्वरूपं परमात्मानम् (उत्पतिष्यन्)उत्पतितुमूर्ध्वंगन्तुमिच्छन् सन् (तस्मै) (प्र) प्रकर्षेण (भाति) दीप्यते (नभसः) निर्मलाकाशादित्यर्थः (ज्योतिषीमान्) ज्योतिष्-अर्शआद्यच्, ङीप्, मतुप्।ज्योतिष्मती बुद्धिर्यस्मिन् सः (स्वर्गः) सुखप्रापकः (पन्थाः) मार्गं (सुकृते)कर्मणे पुरुषाय (देवयानः) विद्वद्भिर्गमनयोग्यः ॥

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    विषय

    देवयान

    पदार्थ

    १. (ईजान:) = यज्ञशील पुरुष (चितम्) = ज्ञानस्वरूप (अग्निम्) = अग्नणी प्रभु को (आरुक्षत्) = आरूढ़ होता है-प्रभु को प्राप्त करता है। यह (नाकस्य पृष्ठात्) = स्वर्गलोक के पृष्ठ से (दिवम् उत्पतिष्यन्) = प्रकाशमय प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है। जब तक यज्ञों में सकामता रहती है, तब तक यह स्वर्ग को प्राप्त करता है। निष्कामता आते ही ये उसे स्वर्ग से भी ऊपर उठाकर प्रभु के समीप ले-जाते हैं। २. (तस्मै) = उस यज्ञशील पुरुष के लिए (नभस:) = आकाश से वह (ज्योतिष्मान्) = प्रभाति ज्योतिर्मय प्रभु प्रकाशित होते हैं-उसे आकाश के तारों में भी प्रभु का प्रकाश दिखता है। (सुकृते) = इस पुण्यशील पुरुष के लिए (स्वर्गः पन्थाः देवयानः) = वह [स्वर्ग] प्रकाशमय मार्ग होता है जोकि देवों का मार्ग है। देव प्रकाशमय मार्ग से गति करते हैं और अन्तत: प्रभु को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    हम सकाम यज्ञों से स्वर्ग को प्राप्त करके उन्हें निष्कामता से करते हुए प्रभु को प्राप्त करनेवाले हों। यही देवयान मार्ग है।

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    भाषार्थ

    (ईजानः) प्राजापत्ययाजी जीवन्मुक्त (चितम् अग्निम्) जब चिताग्नि पर (आरुक्षत्) आरोहण करता है, तब उसकी आत्मा (नाकस्य पृष्ठात्) जीवन्मुक्तावस्था के मोक्षसुख के स्पर्श से (दिवम्) द्योतमान परमेश्वर की ओर (उत् पतिष्यन्) उत्पतन करती हुई, उत्क्रमण करती हुई वर्तमान होती है। (तस्मै सुकृते) उस सुकर्मी आत्मा को (नभसः) अब तक अभासित (देवयानः) परमेश्वर देव तक ले जानेवाला, (ज्योतिषीमान्) ज्योतिर्मय (स्वर्गः) मोक्षरूप का साधनभूत (पन्थाः) मार्ग (प्रभाति) प्रभासित हो जाता है।

    टिप्पणी

    [उत् पतिष्यन्=जीवात्मा को ‘सुपर्ण’ कहा है (मन्त्र ४(४)), इसलिए उत्पतन अर्थात् ऊपर उड़ने का वर्णन हुआ है। सुपर्ण का अर्थ है उत्तम पंखोंवाला। उसके उत्तम-कर्म ही उत्तम पंख हैं। “सुकृते” पद की यही भावना है। योगिजनों की आत्माओं का उत्पतन अर्थात् उत्क्रमण हुआ करता है, और संसारी व्यक्तियों की आत्माओं का अवक्रमण होता है, अर्थात् फिर नीचे की ओर पृथिवी पर आना होता है। दिवम्=यथा “त्रिपादस्यामृतं दिवि” (यजु० ३१।३) में “दिवि” का अर्थ है—“द्योतनात्मक अपने अर्थात् परमेश्वर के निज स्वरूप में” (दयानन्द भाष्य)। नभसः=न+भसः (भासित)।]

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    विषय

    देवयान और पितृयाण।

    भावार्थ

    (ईजानः) यज्ञशील, देव का उपासक जन (नाकस्य पृष्ठात्) सुखमय लोक से (दिवम्) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर के प्रति (उत्पतिष्यन्) ऊपर उठने की अभिलाषा करता हुआ (चितम्) चित्स्वरूप (अग्निम्) ज्ञानमय परमेश्वर का (आरुक्षत्) आश्रय लेता है। (तस्मै) उसके लिये ही (नभसः) आकाश के बीच (ज्योतिषीमान्) ज्योतिर्मय, सूर्य के समान अति दीत परमेश्वर (नभसः) प्रकाश रहित अन्धकार के बीच में (प्र भाति) प्रकाशित होता है। यही वास्तव में (स्वर्गः) सुख से गमन करने योग्य (देवयानः पन्थाः) देवयान मार्ग (सुकृते) उत्तम काम करने हारे के लिये प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    The yajamana dedicated to Prajapatya yajna raises the sacred fire in the vedi and rises by the flames of fire wishing to reach the light of heaven from the top of paradisal joy, and then for that man of pious action, from the depth of his clairvoyant mind, arises the light divine, jyotishmati, and the path to the light and bliss of Svah, Light Divine, worthy of divinities, shines bright and clear.

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    Translation

    He that hath sacrificed hath ascended the piled fire, about to fly up to heaven from the back of the firmament; for him, the well-doer, shines-forth from the welkin, full of light, the heavenly road, ravelled by the gods.

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    Translation

    The man performing Yajna desiring to rise the state of highest light and happiness from the state of limited happiness takes, the support of fire lit for Yajna and for him the doer of good acts gleams the path which is more lustrous than the shining sky and is the state of salvation called as Devayana.

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    Translation

    A worshipper of God, longing to acquire God in this comfortable world, takes shelter under the Conscious, Wise God. For him, God, lustrous like the Sun in heaven, shines, in the midst of darkness. This is the path obtainable with glee by a virtuous person, and called the path on which the sages tread.

    Footnote

    Sages tread: Devyana path.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(ईजानः)समाप्तयज्ञः पुरुषः (चितम्) हवनपदार्थैः संचितम् (आ) समन्तात् (अरुक्षत्)प्रादुष्कृतवान् (अग्निम्) यज्ञाग्निम् (नाकस्य) अतिसुखस्य (पृष्ठात्)उपरिदेशात् (दिवम्) प्रकाशस्वरूपं परमात्मानम् (उत्पतिष्यन्)उत्पतितुमूर्ध्वंगन्तुमिच्छन् सन् (तस्मै) (प्र) प्रकर्षेण (भाति) दीप्यते (नभसः) निर्मलाकाशादित्यर्थः (ज्योतिषीमान्) ज्योतिष्-अर्शआद्यच्, ङीप्, मतुप्।ज्योतिष्मती बुद्धिर्यस्मिन् सः (स्वर्गः) सुखप्रापकः (पन्थाः) मार्गं (सुकृते)कर्मणे पुरुषाय (देवयानः) विद्वद्भिर्गमनयोग्यः ॥

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