अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 69
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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उदु॑त्त॒मंव॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मं श्र॑थाय। अधा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते तवाना॑गसो॒ अदि॑तयेस्याम ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । उ॒त्ऽत॒मम् । व॒रु॒ण॒ । पाश॑म् । अ॒स्मत् । अव॑ । अ॒ध॒मम् । वि । म॒ध्य॒मम् । श्र॒थ॒य॒ । अध॑ । व॒यम् । आ॒दि॒त्य॒ । व्र॒ते । तव॑ । अना॑गस: । अदि॑तये । स्या॒म॒ ॥४.६९॥
स्वर रहित मन्त्र
उदुत्तमंवरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अधा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितयेस्याम ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । उत्ऽतमम् । वरुण । पाशम् । अस्मत् । अव । अधमम् । वि । मध्यमम् । श्रथय । अध । वयम् । आदित्य । व्रते । तव । अनागस: । अदितये । स्याम ॥४.६९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर के नियमों का उपदेश।
पदार्थ
(वरुण) हे स्वीकारकरने योग्य ईश्वर ! (अस्मत्) हम से (उत्तमम्) ऊँचेवाले (पाशम्) पाश को (उत्) ऊपरसे, (अधमम्) नीचेवाले को (अव) नीचे से, और (मध्यमम्) बीचवाले को (वि) विविधप्रकार से (श्रथय) खोल दे। (आदित्य) हे सर्वत्र प्रकाशमान वा अखण्डनीय जगदीश्वर ! (अध) फिर (वयम्) हम लोग (ते) तेरे (व्रते) वरणीय नियम में (अदितये) अदीनापृथिवी के [राज्य के] लिये (अनागसः) निरपराधी (स्याम) होवें ॥६९॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर कीआज्ञा का यथावत् पालन कर के धर्माचरण से भूत, भविष्यत्, और वर्तमान क्लेशों कोअलग कर के सदा सुखी रहें ॥६९॥यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ० ७।८३।३ ॥
टिप्पणी
६९-अयं मन्त्रोव्याख्यातः-अ० ७।८३।३ ॥
विषय
महान पिता 'वरुण प्रभु द्वारा पाशश्रथन [Killing]
पदार्थ
१. हे (वरुण) = सब पाशों का निवारण करनेवाले प्रभो! आप (उत्तमं पाशम्) = सतगुण के उत्कृष्ट "सुखसंग व ज्ञानसंग' रूप पाश को (अस्मत्) = हमसे (उत् प्रथाय) = दूर कर डालिए। (अधम्) = तमोगुण के निकृष्ट 'प्रमाद, आलस्य व निन्द्रा' रूप पाश को अव [श्रथाय]-विनष्ट करिए। (मध्यमम्) = रजोगुण के मध्यम 'कर्मसंग व तृष्णासंग' रूप पाश को भी वि [प्रथाय] विनष्ट करनेवाले होओ। २. हे (आदित्य) = सबका अपने में आदान कर लेनेवाले प्रभो! (अधा) = अब पाशमुक्त होकर (वयम्) = हम (तव व्रते) = आपकी प्राप्ति के व्रत में-आपको प्राप्त करने को ही लक्ष्य बनाकर (अनागस:) = निष्पाप हों और (अदितये स्याम) = न विनाश के लिए हों-अमृतत्व को प्राप्त करें|
भावार्थ
हम प्रभुस्मरण द्वारा सब पाशों को छिन्न करके प्रभु-प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य बनाएँ। प्रभु-प्राप्ति के व्रत में चलते हुए निष्पाप व नीरोग [अभूत] बनें।
भाषार्थ
(वरुण) हे अविद्यानिवारक, वरणीय श्रेष्ठ ईश्वर! आप (अस्मत्) हमसे (उत्तमम्) उत्तम (पाशम्) फंदे को (उत् श्रथाय) शिथिल कीजिए, ढीला कीजिए, तथा विनष्ट कीजिए। (अधमम्) तथा निकृष्ट फंदे को (उत् श्रथाय) शिथिल ढीला तथा विनष्ट कीजिए। और (मध्यमम्) मध्य के फंदे को (विश्रथाय) शिथिल ढीला और विनष्ट कर अलग कीजिए। (अधा) इसके अनन्तर (आदित्य) हे विनाशरहित जगदीश्वर! (तव) सद्गुरुरूप से उपदेष्टा आप के (व्रते) सत्याचरणरूपी व्रत को धारण करके (अनागसः) निरपराधी होकर (अदितये) अखण्ड अर्थात् विनाशरहित सुख अर्थात् मोक्ष के (स्याम) हम अधिकारी हों।
टिप्पणी
[मन्त्रार्थ महर्षि दयानन्द के अर्थ की छाया में किया है (ऋ० १.२४.१५)। पाशम्=जीवात्मा पर तीन फंदे पड़े हुए हैं। वे हैं—कारण-शरीर, सूक्ष्मशरीर और स्थूलशरीर। कारणशरीर उत्तम पाश है, सूक्ष्मशरीर मध्यम, तथा स्थूलशरीर अधम पाश है। कारणशरीर है—सत्त्वमय चित्त। सूक्ष्म शरीर के घटकावयव १८ हैं—५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, ५ तन्मात्राएँ, १ मन, १ अहंकार और १ रजस्तमस् से अभिभूत बुद्धि या चित्त। सूक्ष्म शरीर को लिङ्गशरीर भी कहते हैं। स्थूलशरीर में पंचभूतों के स्थूलावयव हैं। योगदृष्टि से विदेहावस्था में स्थूलशरीर का पाश ढीला पड़ जाता है। अस्मितानुगत-समाधि में प्रकृतिलयावस्था का सूक्ष्मशरीररूपी पाश ढीला पड़ जाता है। तथा विवेकख्याति हो जाने पर इस में भी परवैराग्य हो जाने पर कारणशरीर का पाश भी ढीला पड़कर छूट जाता है, और जीवात्मा जीवन्मुक्त होकर मोक्ष पा लेता है। वानप्रस्थियों तथा संन्यासियों को मन्त्रोक्त प्रकार की प्रार्थनाएँ करनी चाहिएँ। ताकि मोक्षप्राप्ति शीघ्र हो सके। श्रथ= To untie, loosen, liberate, release, to kill (आप्टे)। अदिति=अ+दिति (दो अवखण्डने)। मन्त्र में पाशों का अभिप्राय मानसिक ऐन्द्रियिक और शारीरिक पाप भी सम्भव है।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
हे (वरुण) सब से वरण करने योग्य परमेश्वर ! आप हमारे (उत्तम) उत्कृष्ट (पाशम्) सात्विक कर्म बन्धन को (उत्-श्रथाय) ऊपर से खोल दे। (अधमं पाशं अव श्रथाय) नीचे के पाशको नीचे ढीला कर, सरकादे और (मध्यम) बीच के राजस कर्मबन्धन को भी (वि श्रथाय), विशेष रूप से ढीला कर। (अधा) और हे (आदित्य) सूर्य के समान सबके वशयितः। (तव व्रते) तेरे व्रत में निष्ठ होकर (वयम्) हम (अदितये) अखण्ड, अविनाशी पदकी प्राप्ति के लिये (अनागसः) पापरहित, (स्याम) हों। व्याख्या देखो (अथर्व० ७। ८३। ३॥)।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O Varuna, lord of freedom and justice, loosen and untie our chains of bondage of the highest, medium and lowest order and let them drop from us. And then, O Aditya, lord of refulgent majesty, we shall be free from sin and crime, and, dedicated to your law and discipline, we shall be all for the service of mother Aditi, the lord’s inviolable creation and Nature’s law.
Translation
Loosen-up the uppermost fetter from us, O Varuna, down the lowest, off the midmost, then may We in thy sphere, O Aditya, be guiltless unto Aditi.
Translation
O Varuna, God worshippable by all you loosen the bonds (binding us) which is above, between and or high, middle and low (i.e. the birth in high, middle and low species). Then we becoming firm in law and regulation of yours become sinless for attaining immortality O All-sustaining Lord.
Translation
O God, Worthy of respect and choice by all, untie our bonds, the highest, the middle one, and the lowest and thus* O splendorous God, we may be sinless, under thy control, for the attainment of salvation. (4501)3
Footnote
The highest—‘Pitra-yoni,’ the middle one—‘Manushya-yoni,’ the lowest ‘Pashuyoni, ‘aditi’—‘Deva-yoni’ i.e., of emancipated souls.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६९-अयं मन्त्रोव्याख्यातः-अ० ७।८३।३ ॥
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