अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - भुरिक् त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
70
ती॒र्थैस्त॑रन्तिप्र॒वतो॑ म॒हीरिति॑ यज्ञ॒कृतः॑ सु॒कृतो॒ येन॒ यन्ति॑। अत्रा॑दधु॒र्यज॑मानायलो॒कं दिशो॑ भू॒तानि॒ यदक॑ल्पयन्त ॥
स्वर सहित पद पाठती॒र्थै: । त॒र॒न्ति॒ । प्र॒ऽवत॑: । म॒ही: । इति॑ । य॒ज्ञ॒ऽकृत॑: । सु॒ऽकृत॑: । येन॑ । यन्ति॑ । अत्र॑ । अ॒द॒धु॒: । यज॑मानाय । लो॒कम् । दिश॑: । भू॒तानि॑ । यत् । अक॑ल्पयन्त ॥४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तीर्थैस्तरन्तिप्रवतो महीरिति यज्ञकृतः सुकृतो येन यन्ति। अत्रादधुर्यजमानायलोकं दिशो भूतानि यदकल्पयन्त ॥
स्वर रहित पद पाठतीर्थै: । तरन्ति । प्रऽवत: । मही: । इति । यज्ञऽकृत: । सुऽकृत: । येन । यन्ति । अत्र । अदधु: । यजमानाय । लोकम् । दिश: । भूतानि । यत् । अकल्पयन्त ॥४.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश।
पदार्थ
(तीर्थैः) तरने केसाधनों [शास्त्रों वा घाटों आदि] द्वारा [मनुष्य] (प्रयतः) बहुत गतियोंवाली (महीः) बड़ी [विपत्तियों वा नदियों] को [उस प्रकार से] (तरन्ति) पार करते हैं, (येन) जिससे (यज्ञकृतः) यज्ञ करनेवाले, (सुकृतः) सुकर्मी लोग (यन्ति) चलतेहैं−(इति) ऐसा [निश्चय है]। (अत्र) यहाँ [संसार में] (यजमानाय) यजमान के लिये (लोकम्) स्थान (अदधुः) उन [पुण्यात्माओं] ने दिया है, (यत्) जब कि (दिशः) दिशाओंको (भूतानि) सत्तावाले प्राणियों ने (अकल्पयन्त) समर्थ बनाया है ॥७॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वान्धर्मात्माओं के वेदविहित मार्ग पर चल कर विपत्तियों से पार होवें। धर्मात्मालोग ही संसार में मान्य होते हैं, क्योंकि वे पुरुषार्थी जीव सब दिशाओं कोउपकारी बनाते हैं ॥७॥
टिप्पणी
७−(तीर्थैः) पातॄतुदिवचि०। उ० २।७। तॄ तरणे-थक्। तरणसाधनैःशास्त्रैर्घट्टादिभिर्वा (तरन्ति) अतिक्रामन्ति (प्रवतः) अ० १८।१।४९।प्रकृष्टगतियुक्ताः (महीः) महतीर्विपत्तीर्नदीर्वा (इति) अवधारणे (यज्ञकृतः)यज्ञस्य कर्तारः (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (येन) प्रकारेण (यन्ति) गच्छन्ति (अदधुः)दत्तवन्तः (यजमानाय) (लोकम्) स्थानम् (दिशः) प्राच्याद्याः (भूतानि) सत्तावन्तःप्राणिनः (यत्) यदा (अकल्पयन्त) समर्था अकुर्वन्त ॥
विषय
तीर्थै तरन्ति प्रवतः मही [इति]
पदार्थ
१. (तीर्थै:) = माता, पिता, आचार्य आदि तीर्थों के द्वारा (मही:) = महान् (प्रवतः) = [Precipice, deciving] ढलानों को (तरन्ति) = तैर जाते हैं, अर्थात् अज्ञानान्धकार से तरानेवाले 'माता, पिता, आचार्य' आदि तीर्थ हैं। इनके द्वारा दिये गये ज्ञानों के द्वारा हम जीवन-यात्रा में आ जानेवाली महान् ढलानों को-कठिन मार्गों को जीवन की उलझनों को तैर जाते हैं। (इति) = इसप्रकार अज्ञानान्धकारों को तैर कर ये उस मार्ग से (यन्ति) = चलते हैं, (येन) = जिससे कि (यज्ञकृत: सकृत:) = यज्ञशील पुण्यकृत् लोग चला करते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम में अज्ञान को दूर करके गृहस्थ में यज्ञशील बनते हैं। २. इस (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए अन्न-यहाँ-गृहस्थ जीवन में (दिश:) = सब दिशाएँ (लोकम् अदधुः) = प्रकाश को धारण करती हैं। (यत्) = जबकि ये यज्ञशील (भूतानि) = सब प्राणियों को (अकल्पयन्त) = सामर्थ्य-सम्पन्न करते हैं। यज्ञ की भावना मनुष्यों को परस्पर मेलवाला बनाती है। [यज्ञ संगतिकरणे]। यह मेल उनकी शक्ति को बढ़ाता है। इस शक्ति के होने पर उनके लिए सब ओर प्रकाश-ही-प्रकाश होता है। निर्बलता व असामर्थ्य ही सब कष्टों का मूल बना करती है।
भावार्थ
हम 'माता, पिता, आचार्य' आदि तीर्थों से अज्ञान को तैर कर यज्ञशील बनें। इस यज्ञशीलता से हमारे लिए सब ओर प्रकाश-ही-प्रकाश होता है। इस यज्ञशीलता से हम मेलवाले बनकर शक्तिशाली बनते हैं।
भाषार्थ
जैसे सामुद्रिक यात्री (तीर्थैः) तैराने वाली नौका आदि के द्वारा (प्रवतः) दूर-दूर के (महीः) भूखण्डों से (तरन्ति) पार हो जाते हैं, वैसे मनुष्य (तीर्थैः) महात्माओं, सद्गुरुओं और सदाचार्यों, शास्त्रों द्वारा (प्रवतः) भविष्य की (महीः) महा विपत्तियों और आपदाओं से (तरन्ति) पार हो जाते हैं। तदनन्तर (यज्ञकृतः) याज्ञिक कर्मों के करने वाले (सुकृतः) सुकर्मी लोग (येन) जिस सुपथ द्वारा (यन्ति) चलते हैं, उस सुपथ द्वारा वे मनुष्य भी चलने लगते हैं। तथा (यद्) जब वे यज्ञकृत् और सुकर्मी यज्ञिय भावनाओं और सुकर्मों द्वारा (दिशः) दिशाओं और वायुमण्डल को, और (भूतानि) पंचभूतों और प्राणियों को (अकल्पयन्त) सामर्थ्ययुक्त कर देते हैं, तब वे (अत्र) इस भूमण्डल पर (यजमानाय) प्रत्येक यजन-कर्त्ता के लिए (लोकम्) विशेष आलोक तथा विशेष दृष्टि (अदधुः) प्रदान कर देते हैं।
टिप्पणी
[तीर्थैः=तरन्ति येन तत् तीर्थम् (उणा० २।७)। तथा sacred or holy personage; A sacred preceptor, a teacher; ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मवेत्ता (आप्टे)। लोकम्=आलोक, लोक दर्शने। अत्र=इस भूमण्डल पर। ह्विटनी ने अत्र का अर्थ किया है There; ताकि मन्त्र में मृत्यु के पश्चात् परलोकगमन की भावना प्रकट हो सके। अत्र का अर्थ है here, न कि "there"। प्रवतः=प्र+अव् (गतौ)+शतृ=दूरगत (निरु० १०।२।२०)।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
जिस प्रकार (तीर्थैः) तरण करने के साधन नाव आदि से (महीः) बड़ी (प्रवतः) वेगवान् नदियां तरी जाती हैं उसी प्रकार (तीर्थैः) भवसागर से पार उतरने के साधनभूत अध्यात्म यज्ञ, तप आदि तीर्थों और तपस्वी आदि जंगम तीर्थों द्वारा (महीः प्रवतः) बड़ी बड़ी भारी विपत्तियों को भी (तरन्ति) लोग तैर जाते हैं। (इति) इस प्रयोजन से (येन) जिस मार्ग से (सुकृतः) उत्तम कर्म करने हारे पुण्यात्मा और (यज्ञकृतः) ईश्वरोपासना करने वाले प्रदानशील पुरुष (यन्ति) गमन करते हैं (अत्र) उसी मार्ग में रहकर वे (दिशाः) दिशा और (भूतानि) उत्पन्नशील प्राणी (यत्) जो जो भी (अकल्पयन्त) बनाये हैं वे (यजमानाय) परमेश्वर के उपासक यज्ञशील पुरुष के लिये (लोकम्) लोक, स्थान को (अदधुः) बनाते हैं। पुण्यात्माओं के मार्गगामी ईश्वरोपासक को समस्त प्राणी और दिशाएं आश्रय देते हैं। यज्ञों को कच्चा तरण साधन अर्थात् निर्बल जहाज़ माना गया है, जैसे— प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म। उप०। दृढ साधन तो ब्रह्मज्ञान के साधन ही हैं। त्रिणाचिकतस्त्रिभिरेत्य सन्धि त्रिकर्मकृत तरति जन्ममृत्यू । कठ० उ० १। १॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Bold pioneers cross mighty seas with boats they design. They are mighty men of yajna, heroic doing and great achievement, and, by the ways they perform, others learn and they too cross the hurdles. And when the natural processes of divine evolution create the spaces and forms of existence, they assign a place of prominence to the yajamana in life.
Translation
By fords they cross the advances called the great ones, by what (road) the sacrifice-makers, the well-doers, go; there did they set a world for the sacrificer; when they arranged the quarters, the creatures.
Translation
The men (of perseverance) tide over overwhelming difficulties through the way which the performers of Yajna and doers of good acts traverse like the rivers through the sailing means. When all the quartres, the creatures are filled with oblatory substance they make place for the performer of Yajna in this world.
Translation
Men can overcome mighty obstacles through religious lore, treading on the path on which the worshippers of God and the virtuous travel When regions and creatures were created in the beginning they afforded shelter to a worshipper of god.
Footnote
A worshipper of God can feel no suffering. Human beings and nature’s forces give him shelter.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(तीर्थैः) पातॄतुदिवचि०। उ० २।७। तॄ तरणे-थक्। तरणसाधनैःशास्त्रैर्घट्टादिभिर्वा (तरन्ति) अतिक्रामन्ति (प्रवतः) अ० १८।१।४९।प्रकृष्टगतियुक्ताः (महीः) महतीर्विपत्तीर्नदीर्वा (इति) अवधारणे (यज्ञकृतः)यज्ञस्य कर्तारः (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (येन) प्रकारेण (यन्ति) गच्छन्ति (अदधुः)दत्तवन्तः (यजमानाय) (लोकम्) स्थानम् (दिशः) प्राच्याद्याः (भूतानि) सत्तावन्तःप्राणिनः (यत्) यदा (अकल्पयन्त) समर्था अकुर्वन्त ॥
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