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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 62
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् आस्तार पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    48

    आ या॑त पितरःसो॒म्यासो॑ गम्भी॒रैः प॒थिभिः॑ पितृ॒याणैः॑। आयु॑र॒स्मभ्यं॒ दध॑तः प्र॒जां च॑रा॒यश्च॒ पोषै॑र॒भि नः॑ सचध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒त॒ । पि॒त॒र॒: । सो॒म्यास॑: । ग॒म्भी॒रै: । प॒थिऽभि॑: । पि॒तृ॒ऽयानै॑: । आयु॑: । अ॒स्मभ्य॑म् । दध॑त: । प्र॒ऽजाम् । च॒ । रा॒य: । च॒ । पोषै॑: । अ॒भि । न॒: । स॒च॒ध्व॒म् ॥४.६२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यात पितरःसोम्यासो गम्भीरैः पथिभिः पितृयाणैः। आयुरस्मभ्यं दधतः प्रजां चरायश्च पोषैरभि नः सचध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यात । पितर: । सोम्यास: । गम्भीरै: । पथिऽभि: । पितृऽयानै: । आयु: । अस्मभ्यम् । दधत: । प्रऽजाम् । च । राय: । च । पोषै: । अभि । न: । सचध्वम् ॥४.६२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 62
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों के सत्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (पितरः) हे पितरो ! [पिता आदि मान्यो] (सोम्यासः) प्रियदर्शन तुम (गम्भीरैः) गम्भीर [शान्त], (पितृयाणैः) पितरों के चलने योग्य (पथिभिः) मार्गों से (आ यात) आओ। (च) और (अस्मभ्यम्) हम को (आयुः) जीवन (च) और (प्रजाम्) प्रजा [पुत्र, पौत्र, सेवक आदि] (ददतः) देते हुए तुम (रायः) धन की (पोषैः) वृद्धियों से (नः) हमें (अभि) सब ओर (सचध्वम्) सींचो ॥६२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य शान्तचित्त, शान्ति के मार्ग पर चलनेवाले विद्वान् महात्माओं का सत्सङ्ग करते रहते हैं, वहउत्तम जीवन और श्रेष्ठ सन्तान आदि प्रजा पाकर बहुत धनी होते हैं ॥६२॥इस मन्त्रका उत्तरार्द्ध कुछ भेद से आ चुका है-अ० ९।४।२२ ॥

    टिप्पणी

    ६२−(आ यात) आगच्छत (पितरः) हेपालका ज्ञानिनः (सोम्यासः) प्रियदर्शना यूयम् (गम्भीरैः) गभीरगम्भीरौ। उ० ४।३५।गम्लृ गतौ-ईरन् नुगागमः। शान्तैः। गहनैः (पथिभिः) मार्गैः (पितृयाणैः)पितृभिर्गमनयोग्यैः (ददतः) प्रयच्छन्तः (सचध्वम्) सिञ्चत। अन्यद् गतम् अ० ९।४।२२॥

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    विषय

    उत्तम 'आयुष्य-प्रजा व धन'

    पदार्थ

    १. हे (सोम्यासः) = सोमरक्षण द्वारा सोम्य [शान्त] स्वभाववाले (पितर:) = पितरो। आप (आयात) = हमारे समीप सर्वथा प्राप्त होओ। आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (गम्भीरैः पितयाणैः पथिभिः) = गम्भीर [न कि उथले] पितरों से जाने योग्य मागों के द्वारा (आयुः प्रजां च) = दीर्घजीवन व उत्तम सन्तति को (दधत:) = धारण करते हुए होओ। आपकी सत्प्रेरणाओं से हम उस मार्ग पर चलें जिससे उत्तम आयुष्य व प्रजा को पानेवाले बनें २. (च) = और आप (नः) = हमें (रायः पोषैः) = धन के पोषण से (अभि सचध्वम्) = उभयतः समवेत कीजिए। हम बाह्य धन को भी प्राप्त करें और आन्तर धन को भी प्राप्त करनेवाले बनें। बाह्यधन हमारी भौतिक अवश्कताओं को पूरा करेगा और आन्तर धन से हमारी अध्यात्मशक्ति का पोषण होगा।

    भावार्थ

    पितरों से सत्प्रेरणाओं को प्राप्त करते हुए हम गम्भीर पितृयाण कर्मों से चलते हुए 'उत्तम आयुष्य, प्रजा व धन' को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (पितरः) हे पितरो ! (पितृयाणैः) पितरों के निमित्त भेजे गये यानों अर्थात् रथों द्वारा, आप (गम्भीरैः) गहन और दुर्गम (पथिभिः) मार्गों से भी (आयात) आइये। आप (सोम्यासः) सोम्य अर्थात् मधुर स्वभाववाले हैं। (अस्मभ्यम्) हम गृहस्थों को (आयुः) श्रेष्ठ तथा दीर्घ आयु, (प्रजां च) और उत्तम सन्तानोत्पादन का उपदेश। (दधतः) देते हुए, आप (रायः च पोषैः) हमारी परिपुष्ट सम्पत्तियों के कारण (नः) हमारे साथ (अभि) साक्षात् (सचध्वम्) सम्बन्ध बनाये रखिये। या अपनी परिपुष्ट आध्यात्मिक विभूतियों से हमें सम्पृक्त कीजिये।

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    विषय

    देवयान और पितृयाण।

    भावार्थ

    हे (पितरः) व्रत परिपालक पूजनीय पुरुषो ! आप लोग (सोम्यासः) सोम, ब्रह्मज्ञान का अभ्यास काने हारे ब्रह्मचारी होकर (गम्भीरैः) अति गम्भीर, दुर्गम, (पितृयाणैः) संसार के परिपालक पिताओं के जाने योग्य (पथिभिः) सन्मार्गों से (आयात) गमन करो। और (अस्मभ्यम्) हमारे हित के लिये (आयुः) दीर्ध आयु को और (प्रजां च) प्रजाओं को (दधतः) भली प्रकार धारण पोषण करते हुए (रायः पोषैः च) ऐश्वर्य के द्वारा प्राप्त पोषक उपायों से (नः) हमें (सचध्वम्) प्राप्त होओ।

    टिप्पणी

    ‘एत पितरः सोम्यासो गम्भीरेभिः पथिभिः पूर्विणेभिः’ इति मै० ब्रा॰। ‘पथिभिः पूर्व्यैः’ इति हि० गृ० सू०। (तृ०) ‘दधत’ इति सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O parental seniors and sages, lovers of peace dedicated to soma and divine inspiration, come by the serious and awesome paths carved out by forefathers. Bear and bring us good health and full age, wealth, honour and excellence, bless us and our children and help us with progress and prosperity.

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    Translation

    Come ye, O Fathers, delectable, by profound roads that the Fathers travel, assigning to us lifetime and progeny; and do ye anach yourselves to us with abundances of wealth.

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    Translation

    O Ye elders, you who are in dexter preparing herbaceous medicines come to us by the paths adopted by elders and untreadable by orderinary men. You bestowing life upon us and giving progeny favor us with increase of riches,

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    Translation

    O fore-fathers, who are acting according to your vow and being celebate, are in search of Divine bliss go forth on your difficult paths of spiritual attainments, worthy to be followed by the elderly people. Giving us long life and offspring, shower on us riches and vitalizing means of subsistence.

    Footnote

    A 'grihasthi': a householder wishes his fore-fathers to follow the difficult path of spiritual attainment and invoked their blessings for his own people.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६२−(आ यात) आगच्छत (पितरः) हेपालका ज्ञानिनः (सोम्यासः) प्रियदर्शना यूयम् (गम्भीरैः) गभीरगम्भीरौ। उ० ४।३५।गम्लृ गतौ-ईरन् नुगागमः। शान्तैः। गहनैः (पथिभिः) मार्गैः (पितृयाणैः)पितृभिर्गमनयोग्यैः (ददतः) प्रयच्छन्तः (सचध्वम्) सिञ्चत। अन्यद् गतम् अ० ९।४।२२॥

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