अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 63
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - स्वराट् आस्तार पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
45
परा॑ यात पितरःसो॒म्यासो॑ गम्भी॒रैः प॒थिभिः॑ पू॒र्याणैः॑। अधा॑ मासि॒ पुन॒रा या॑त नोगृ॒हान्ह॒विरत्तुं॑ सुप्र॒जसः॑ सु॒वीराः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । या॒त॒ । पि॒त॒र॒: । सो॒म्यास॑: । ग॒म्भी॒रै: । प॒थिऽभि॑: । पू॒:ऽयानै॑: । अध॑ । मा॒सि । पुन॑: । आ । या॒त॒ । न॒: । गृ॒हान् । ह॒वि: । अत्तु॑म् । सु॒ऽप्र॒जस॑: । सु॒ऽवीरा॑: ॥४.६३॥
स्वर रहित मन्त्र
परा यात पितरःसोम्यासो गम्भीरैः पथिभिः पूर्याणैः। अधा मासि पुनरा यात नोगृहान्हविरत्तुं सुप्रजसः सुवीराः ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । यात । पितर: । सोम्यास: । गम्भीरै: । पथिऽभि: । पू:ऽयानै: । अध । मासि । पुन: । आ । यात । न: । गृहान् । हवि: । अत्तुम् । सुऽप्रजस: । सुऽवीरा: ॥४.६३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थ
(पितरः) हे पितरो ! [पिता आदि मान्यो] (सोम्यासः) प्रियदर्शन तुम (गम्भीरैः) गम्भीर [शान्त], (पूर्याणैः) नगरों को जानेवाले (पथिभिः) मार्गों से (परा) प्रधानता के साथ (यात)चलो। (अध) और (पुनः) अवश्य (मासि) महीने-महीने (सुप्रजसः) उत्तम प्रजाओंवाले और (सुवीराः) उत्तम वीरोंवाले तुम (नः) हमारे (गृहान्) घरों में (हविः) भोजन (अत्तुम्) खाने के लिये (आ यात) आओ ॥६३॥
भावार्थ
गृहस्थ लोग विद्वान्पितर महात्माओं के दर्शन से सदा लाभ उठावें और दर्शेष्टि और पूर्णमासेष्टि आदिनियत समय पर तो अवश्य उन के सत्सङ्ग से आनन्द पावें ॥६३॥इस मन्त्र के प्रथम पादको मिलाओ-अ० १८।३।१४ ॥
टिप्पणी
६३−(परा) प्राधान्येन। अन्यत् पूर्ववत्-म० ६२ (पूर्याणैः)अ० १८।१।५४। पुरो नगरान् गच्छद्भिः (अध) अथ (मासि) प्रतिमासं दर्शेष्टौपूर्णमासेष्टौ च (पुनः) अवश्यम् (आयात) आगच्छत (नः) अस्माकम् (गृहान्) निवासान् (हविः) ग्राह्यं भोजनम् (अत्तुम्) भक्षयितुम् (सुप्रजसः) उत्तमप्रजावन्तः ॥
विषय
प्रतिमास [पूर्णिमा पर] पितरों का आना
पदार्थ
१. हे (सोम्यास:) = सोम का सम्पादन करनेवाले सौम्य स्वभाव (पितर:) = पितरो। (गम्भीरैः) = गम्भीर विचार परिपूर्ण (पर्याण:) = ब्रह्मपुरी की ओर ले-जानेवाले (पथिभिः) = मागों से (परा यात) = उत्कृष्ट मोक्षमार्ग की ओर गतिवाले होओ। आप नित्य स्वाध्याययुक्त होकर ब्रह्मदर्शन के लिए यत्नशील होओ। इसी उद्देश्य से आप गृहस्थ से ऊपर उठकर वनस्थ हुए हो। २. (अधा पुन:) = अब फिर भी (मासि) = महीने के बीतने पर (नः गृहान्) = हमारे इन घरों को ह(विः अत्तुम्) = यज्ञशिष्ट पवित्र भोजन को ग्रहण करने के लिए (आयात) = आओ, जिससे हम आपकी प्रेरणाओं के अनुसार चलते हुए (सुप्रजस:) = उत्तम प्रजावाले व (सुवीरा:) = सुवीर बन पाएँ।
भावार्थ
सौम्य पितर ब्रह्मप्राप्ति के गम्भीर मार्ग से गमनवाले हों। वे प्रतिमास हमारे घरों पर हवि ग्रहण करने का अनुग्रह करें और हमें सत्प्रेरणाओं के द्वारा उत्तम प्रजावाले व वीर बनाएँ।
भाषार्थ
(सोम्यासः) हे सोम्य स्वभाव वाले, मधुर स्वभाव वाले (पितरः) पितरो! (पूर्याणैः) नागरिक रथों द्वारा (गम्भीरैः) गहन और दुर्गम मार्गों से आप (परायात) अपने दूर-दूर के स्थानों में चले जाइए। (अधा) तदनन्तर (मासि) मास के पश्चात् (पुनः) फिर (नः गृहान्) हमारे घरों में (आ यात) आइए (हविः अत्तुम्) हविष्यान्नों को खाने के लिए। आपके सदुपदेशों द्वारा (सुप्रजसः) उत्तम सन्तानोंवाले (सुवीराः) और श्रेष्ठ वीरों वाले, या हम स्वयं श्रेष्ठ वीर हों।
टिप्पणी
[यानों अर्थात् रथों द्वारा आना-जाना, और मास-मास के बाद आना-जाना, गृहस्थों के घर आकर हविष्यान्न का खाना, जीवित पितरों में ही सम्भव है।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
हे (सोम्यासः) सोम, ब्रह्मज्ञान के अभ्यास करने हारे (पितरः) व्रतों और ब्रह्मचारी गण के पाल्क पूजनीय पुरुषा ! आप लोग (गम्भीरैः) गम्भीर, दुर्गम (पूर्याणैः) पुर के समान भीतर ब्रह्मपुरी को पहुंचाने वाले (पथिभिः) योग आदि मार्गों से (परायात) पर लोक मोक्ष को जाओ। अथवा (पूर्याणैः परायात) पुरी तक पहुंचने वाले मार्गों से ही आप पुनः अपने अपने आश्रमों में पधारें। (अधा) और (मासि) मास पूर्ण होजाने पर, प्रति पूर्णिमा पर (नः गृहान्) हमारे घरों पर (पुनः) फिर (सुप्रजसः) उत्तम प्रजा और (सुवीराः) उत्तम वीर सन्तान एवं शिष्यगण से युक्त होकर (हविः अत्तम्) अन्न खाने के लिये (आयात) आइये।
टिप्पणी
(तृ०) ‘आ । अयात’ इति पदपाठः। (प्र०) ‘परेतन’ (दि०) ‘गम्भीरेभिः’ इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O parental seniors and sages, pitaras, lovers of peace and soma of good cheer, go far by great and awesome paths and highways leading to cities and citadels, and then at the end of the month come again and visit our homes to partake of our hospitality and meet your noble people and their progeny, your own, worthy of the brave.
Translation
Go away, O Fathers, delectable, by profound roads that go to the stronghold; then; in a month, come ye again to our houses to eat the oblation, with good progeny, with good heroes.
Translation
O Ye our fore-fathers who are dexter in medical preparations return to your places by the deep ways leading to the residing villages. You with good studnest and men come again, in a month to our houses for eating the remains of oblatory substance, or eatables.
Translation
O elders, who have taken the vow of celibacy for seeking the company of the pleasure-giving God, attain salvation by treading the difficult paths,. leading to the final-abode of the Blissful Father. And on the completion of a month, come back to our homes, along with noble and brave disciples to partake of our sacrificial oblations.
Footnote
The same householder requests his Banprasth, practicing Yoga to come monthly to his home to share his offerings of a sacrifice.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६३−(परा) प्राधान्येन। अन्यत् पूर्ववत्-म० ६२ (पूर्याणैः)अ० १८।१।५४। पुरो नगरान् गच्छद्भिः (अध) अथ (मासि) प्रतिमासं दर्शेष्टौपूर्णमासेष्टौ च (पुनः) अवश्यम् (आयात) आगच्छत (नः) अस्माकम् (गृहान्) निवासान् (हविः) ग्राह्यं भोजनम् (अत्तुम्) भक्षयितुम् (सुप्रजसः) उत्तमप्रजावन्तः ॥
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