अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 41
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
54
समि॑न्धते॒अम॑र्त्यं हव्य॒वाहं॑ घृत॒प्रिय॑म्। स वे॑द॒ निहि॑तान्नि॒धीन्पि॒तॄन्प॑रा॒वतो॑ग॒तान् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । इ॒न्ध॒ते॒ । अम॑र्त्यम् । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । घृ॒त॒ऽप्रिय॑म् । स: । वे॒द॒ । निऽहि॑तान् । नि॒ऽधीन् । पि॒तॄन् । परा॒ऽवत॑: । ग॒तान् ॥४.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
समिन्धतेअमर्त्यं हव्यवाहं घृतप्रियम्। स वेद निहितान्निधीन्पितॄन्परावतोगतान् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । इन्धते । अमर्त्यम् । हव्यऽवाहम् । घृतऽप्रियम् । स: । वेद । निऽहितान् । निऽधीन् । पितॄन् । पराऽवत: । गतान् ॥४.४१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों की सेवा का उपदेश।
पदार्थ
वे [पितर लोग] (अमर्त्यम्) अमर [न मरते हुए पुरुषार्थी], (हव्यवाहम्) ग्रहण करने योग्यपदार्थों के पहुँचानेवाले, (घृतप्रियम्) घी आदि को प्रिय जाननेवाले [जिस] पुरुषको (सम्) यथाविधि [ज्ञान से] (इन्धते) प्रकाशमान करते हैं। (सः) वह [पुरुष] (परावतः) पराक्रम से चलनेवाले (पितॄन्) पितरों को (गतान्) प्राप्त हुए और (निहितान्) संग्रह किये हुए (निधीन्) [रत्न सुवर्ण आदि के] कोशों को (वेद)जानता है ॥४१॥
भावार्थ
जो मनुष्य माता-पिता आदि पितरों की सेवा घृत, दुग्ध आदि उत्तम पदार्थों से करते हैं, वे पितृभक्त उनपितरों की कृपा से विद्यारत्न प्राप्त करके बड़े धनी होते हैं ॥४१॥
टिप्पणी
४१−(सम्)सम्यक्। यथाविधि। ज्ञानेन (इन्धते) प्रकाशयन्ते ते पितरः (अमर्त्यम्)अम्रियमाणम्। पुरुषार्थिनम् (हव्यवाहम्) ग्राह्यपदार्थानां प्रापकम् (घृतप्रियम्) घृतादिकं कामयमानं पुरुषम् (सः) पूर्वोक्तः पुरुषः (वेद) वेत्ति (निहितान्) स्थापितान्। संगृहीतान् (निधीन्) रत्नसुवर्णादिकोशान् (पितॄन्) “गतान्” इत्यनेन कर्मकारके सम्बन्धः। पालकान् पुरुषान् (परावतः) उपसर्गाच्छन्दसिधात्वर्थे। पा० ५।१।११८। परा+वतिप्रत्ययो धात्वर्थे। परा पराक्रमेण गन्तॄन् (गतान्) अयं सकर्मकः। प्राप्तान् ॥
विषय
प्रभु-समिन्धन
पदार्थ
१. आचार्यकुलों में उचित शिक्षण प्राप्त करनेवाले लोग उस प्रभु को अपने हृदयदेश में (समिन्धते) = समिद्ध करते हैं-उस प्रभु के प्रकाश को हृदय में देखनेवाले बनते हैं जो (अमर्त्यम्) = अविनाशी है, (हव्यवाहम्) = सब हव्य [प्रार्थनीय] पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं तथा (घृतप्रियम्) = [घृतेन प्रीणाति] ज्ञानदीप्ति के द्वारा प्रीणित करनेवाले हैं। २. (सः) = वे प्रभु ही तो (निहितान् निधीन्) = 'अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिरा' आदि ऋषियों के हृदयों में स्थापित किये गये वेदरूप ज्ञानकोशों को वेद-हमारे लिए प्राप्त कराते हैं तथा (परावतः) = विषयों से ऊपर उठकर सुदूर देशों में (गतान्) = प्राप्त (पितृन्) = पितरों को भी वे प्रभु ही हमारे लिए प्राप्त कराते हैं। प्रभुकृपा से ही हमें इन उच्च जीवनवाले पितरों का सम्पर्क प्राप्त होता है।
भावार्थ
हम हृदयदेश में प्रभु के प्रकाश को देखने का प्रयत्न करें। प्रभु ही अग्नि आदि ऋषियों के हृदयों में वेदज्ञान को स्थापित करते हैं तथा प्रभुकृपा से ही हमें उच्च जीवनवाले पितरों का संग प्राप्त होता है।
भाषार्थ
संन्यासी तथा वानप्रस्थी (अमर्त्यम्) अमर अविनाशी, (हव्यवाहम्) भक्तिरसरूपी हवि को स्वीकार करनेवाले, (घृतप्रियम्) वीर्यवान् ऊर्ध्वरेता को चाहनेवाले परमेश्वराग्नि को (समिन्धते) हृदयों में संदीप्त करते हैं, प्रकट करते हैं। (सः) वह परमेश्वर (निहितान् निधीन्) मनुष्यों में निहित अर्थात् छिपी हुई योगजन्य विभूतियों को (वेद) जानता है। और उन (पितॄन्) पितरों को भी जानता है, पहिचानता है, जो कि गृहस्थ-जीवन त्याग कर (परावतः गतान्) दूर परे चले गये हैं।
टिप्पणी
[मन्त्र में अग्नि का विशेषण है “अमर्त्य”। प्राकृतिक अग्नि मर्त्य है, विनाशी है। परमेश्वराग्नि अमर्त्य है, अमर है, अविनाशी है। साथ ही “वेद” पद द्वारा अग्नि को ज्ञानी कहा है। प्राकृतिक अग्नि ज्ञानी नहीं। परमेश्वर ही जानता है कि किस मनुष्य में कौन-कौन सी योगजन्य विभूतियाँ निहित हैं। इसलिए इन विभूतियों की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए। घृतप्रियम्, घृत=रेतः=वीर्य। यथा—“रेतः कृत्वाज्यं देवाः पुरुषममाविशन्” (अथर्व० ११.८.२९)। ब्रह्मचर्य मोक्ष तथा परमेश्वर की प्राप्ति में साधन है। “श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्” (योग १.२०) तथा “अहिंसासत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः” (योग २.३०)।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
लोग (घृतप्रियम्) घृत के प्रिय अग्नि के समान तेजोमय पदार्थों को धारण करने वाला तेजस्वी (हव्यवाहम्) हव्य, चरु आदि के समान समस्त स्तुतियों और ज्ञानों को वहन करने वाले (अमर्त्यम्) मरण धर्म रहित, अविनाशी परमात्मा को यज्ञ के अग्नि के समान (सम्इन्धते) अपनी हृदय वेदि में प्रदीप्त करते हैं। वह परमेश्वर ही (निहितान्) गुप्तरूपसे रखे (निधीन्) खजानों को समस्त ऋद्धि सिद्धि आदि ऐश्वर्यों को भी (वेद) जानता है और वही (परावतः गतान्) दूर गये (पितृन्) हमारे पूज्य पुरुषों को वेद जानता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
People of piety and devotion light the fire which is the lover, receiver, carrier and disseminator of the havi offered into the vedi and thus worship the immortal Agni which knows and begets the hidden treasures, also those which were known to our forefathers now gone far away.
Translation
They kindle the immortal one, oblation-carrying, gheeloving; he knoweth the deposited deposits, the Fathers that are gone-away to the distances.
Translation
Let the people enkindle fire (of Yajna) which carries the oblatory substances which is butter-loving and undecaying. This fire makes us known of concealed treasures and the seasons which are far away (from our reach).
Translation
They (i.e., engineers) enkindle (set in motion) the imperishable, load carrying water-loving electricity. He (an engineer) knows the storehouse of the secret currents of electricity that have gone far and wide over the country and even in the outer space.
Footnote
The indestructiveness, the capacity for carrying heavy loads and affinity for water of electric currents is well-known. ‘The engineers should provide secret store-house for the generated energy’ is indicated by the latter half of the verse.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४१−(सम्)सम्यक्। यथाविधि। ज्ञानेन (इन्धते) प्रकाशयन्ते ते पितरः (अमर्त्यम्)अम्रियमाणम्। पुरुषार्थिनम् (हव्यवाहम्) ग्राह्यपदार्थानां प्रापकम् (घृतप्रियम्) घृतादिकं कामयमानं पुरुषम् (सः) पूर्वोक्तः पुरुषः (वेद) वेत्ति (निहितान्) स्थापितान्। संगृहीतान् (निधीन्) रत्नसुवर्णादिकोशान् (पितॄन्) “गतान्” इत्यनेन कर्मकारके सम्बन्धः। पालकान् पुरुषान् (परावतः) उपसर्गाच्छन्दसिधात्वर्थे। पा० ५।१।११८। परा+वतिप्रत्ययो धात्वर्थे। परा पराक्रमेण गन्तॄन् (गतान्) अयं सकर्मकः। प्राप्तान् ॥
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