अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 30
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
54
कोशं॑ दुहन्तिक॒लशं॒ चतु॑र्बिल॒मिडां॑ धे॒नुं मधु॑मतीं स्व॒स्तये॑। ऊर्जं॒ मद॑न्ती॒मदि॑तिं॒जने॒ष्वग्ने॒ मा हिं॑सीः पर॒मे व्योमन् ॥
स्वर सहित पद पाठकोश॑म् । दु॒ह॒न्ति॒ । क॒लश॑म् । चतु॑:ऽबिलम् । इडा॑म् । धे॒नुम् । मधु॑ऽमतीम् । स्व॒स्तये॑ । ऊर्ज॑म् । मद॑न्तीम् । अदि॑तिम् । जने॑षु । अग्ने॑ । मा । हिं॒सी॒: । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥४.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
कोशं दुहन्तिकलशं चतुर्बिलमिडां धेनुं मधुमतीं स्वस्तये। ऊर्जं मदन्तीमदितिंजनेष्वग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥
स्वर रहित पद पाठकोशम् । दुहन्ति । कलशम् । चतु:ऽबिलम् । इडाम् । धेनुम् । मधुऽमतीम् । स्वस्तये । ऊर्जम् । मदन्तीम् । अदितिम् । जनेषु । अग्ने । मा । हिंसी: । परमे । विऽओमन् ॥४.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गोरक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(कोशम्) भण्डारतुल्य, (चतुर्बिलम्) चार छेद [स्तन] वाले (कलशम्) कलश [गौ के लेवा] को (इडाम्) स्तुतियोग्य, (मधुमतीम्) मधुर रस [मीठे दूध] वाली (धेनुम्) दुधैल गौ से (स्वस्तये)आनन्द के लिये (दुहन्ति) [मनुष्य] दुहते हैं। (अग्ने) हे ज्ञानी राजन् ! (परमे)सर्वोत्कृष्ट (व्योमन्) सर्वत्र व्यापक परमात्मा में [वर्तमान तू] (जनेषु)मनुष्यों के बीच (ऊर्जम्) बलदायक रस (मदन्तीम्) बढ़ाती हुई (अदितिम्) अदीन [औरअखण्डनीय] गौ को (मा हिंसीः) मतमार ॥३०॥
भावार्थ
राजा ऐसा प्रबन्ध करेकि गौ आदि पशु, जो दूध घी आदि उत्तम पदार्थ देने में दीन नहीं होते और उनके बच्चेबैल आदि जो खेती आदि में उपकार करते हैं, जिस से प्रजा की रक्षा होती है, उन सबकोकोई मनुष्य कभी न सतावे और न मारे ॥३०॥इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध कुछ भेद से यजुर्वेदमें है−१३।४९, और पूर्वार्द्ध के लिये मन्त्र ३६ आगे देखो ॥
टिप्पणी
३०−(कोशम्)रत्नसुवर्णादिसंचयस्थानं यथा (दुहन्ति) दुहिर्द्विकर्मकः। प्रपूरयन्ति (कलशम्)कुम्भसदृशं पयोधरम् (चतुर्बिलम्) चतुश्छिद्रम्। चतुःस्तनम् (इडाम्) अ० ३।१०।६।ईड स्तुतौ-घञ्। ईकारस्य ह्रस्वः, टाप्। इला गोनाम-निघ० २।११। ईड्याम्।स्तुत्याम्। (धेनुम्) अ० ३।१०।१। धेट इच्च। उ० ३।३४। इति धेट् पाने-नु। यद्वा, धिधारणे-तर्पणे च-नु। धेनुर्धयतेर्वा धिनोतेर्वा-निरु० ११।४२। दोग्ध्रीं गाम् (मधुमतीम्) मधुररसदुग्धयुक्ताम् (स्वस्तये) कल्याणाय (ऊर्जम्) बलकरं रसम् (मदन्तीम्) मदयन्तीम्। तोषयन्तीम्। वर्धयन्तीम् (अदितिम्) अ० २।२८।४।कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११६। दीङ् क्षये, दो अवखण्डने-क्तिन्। अदितिरदीनादेवमाता-निरु० ४।२२। अदितिर्गोनाम-निघ० २।११। अदीनामखण्डनीयां गाम् (जनेषु)मनुष्येषु (अग्ने) हे विद्वन् राजन् (मा हिंसीः) मा वधीः मा पीडय (परमे)सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) व्योम्नि। सर्वव्यापके परमात्मनि ॥
विषय
इडा धेनु का दोहन
पदार्थ
१. वेदवाणी एक गौ है, जो हमारे लिए ज्ञानरूप दुग्ध का प्रपूरण करती है। इस (इडां धेनुम) = वेदवाणीरूप गौ को जोकि (मधुमतीम्) = हमारे जीवनों को अतिशयेन मधुर बनानेवाली है, इसे (स्वस्तये) = कल्याण के लिए (दुहन्ति) = दोहते हैं। यह वेदवाणीरूप धेनु (कोशम्) = ज्ञान का कोश है। (कलशम्) = [कला शेरतेऽस्मिन्] सब कलाओं का निवासस्थान है तथा (चतुर्बिलम्) = यह वेदवाणी कलश 'ऋग, यजुः, साम, अधर्व' रूप चार बिलोंवाला है। वेदरूप इन चारों स्तनों से ज्ञानदुग्ध का प्रलवण होता है। २. इस (जनेषु) = लोगों में (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति का संचार करनेवाली, (मदन्तीम) = [मादयनीम]-जीवन को आनन्दमय बनानेवाली, (अदितिम्) = [अ-दिति] शरीर के स्वास्थ्य को नष्ट न होने देनेवाली वेदवाणीरूप गौ को, हे अग्ने-प्रगतिशील जीव! (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट हृदयाकाश में (मा हिंसी:) = मत हिसित कर। हृदय में तू इसे स्थान दें। इससे नित्यप्रति ज्ञानदुग्ध का दोहन करनेवाला बन।
भावार्थ
हमारे हृदयों में सदा वेदवाणी के लिए स्थान हो। हम सदा इसका स्वाध्याय करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(कलशम्) प्रसुप्त आनन्दरस मात्रावाले, (चतुर्बिलम्) चार बिलों वाले (कोशम्) हृदय-कोश से, (स्वस्तये) कल्याण के लिए, योगीजन (दुहन्ति) आनन्दरस दोहते हैं। तथा (स्वस्तये) कल्याण के लिए, स्वाध्यायी जन (मधुमतीम्) मधुर ज्ञान-दुग्ध वाली (इडाम्) वेदवाणीरूप (धेनुम्) दुधार-गौ को (दुहन्ति) दोहते हैं। (अग्ने) हे ज्ञानाग्नि सम्पन्न मनुष्य! तू (जनेषु) सब जनों के निमित्त (ऊर्जम्) बलदायक तथा प्राणदायक, ज्ञान-रस का (मदन्तीम्) स्तवन करनेवाली, तथा जनों की (परमे व्योमन्) परम रक्षा में विद्यमान (अदितिम्) अनश्वर वेदवाणी का (मा हिंसीः) परित्याग न कर१।
टिप्पणी
[कोशम्=हृदय। यथा— अ॒ष्टाच॑क्रा॒ नव॑द्वारा दे॒वानां॒ पूर॑यो॒ध्या। तस्यां॑ हिर॒ण्ययः॒ “कोशः॑” स्व॒र्गो ज्योति॒षावृ॑तः॥ तस्मि॑न्हिर॒ण्यये॒ “कोशे॒” त्र्य रे॒ त्रिप्र॑तिष्ठिते। तस्मि॒न्यद्य॒क्षमा॑त्म॒न्वत्तद्वै ब्र॑ह्म॒विदो॑ विदुः॥ अथर्व॰ १०.२.३१-३२॥ चतुर्बिलम्=हृदय के बाह्य-स्तर में चार बिलें हैं। एक बिल द्वारा शरीर के ऊपरी भाग का और अधोभाग का गन्दा खून हृदय में आता है। दूसरे बिल द्वारा हृदय का यह गन्दा खून फेफड़ों में जाकर शुद्ध होता है। तीसरे बिल द्वारा फेफड़ों का शुद्ध खून हृदय में आता है। चौथे बिल द्वारा हृदय का शुद्ध खून शरीर में चक्कर काटता है। कलशम्=कलाः अस्मिन् शेरते मात्राः (निरुक्त० ११.१.१२)। ये कलाएं या मात्राएं आनन्दमात्राएं हैं, जो कि हृदय में प्रसुप्त रहती हैं, जिन्हें योगी अनुभव करता है। इडाम्=इळा=वाक् (निघं० १.११)। अदितिम्=वाक् (निघं० १.११)। व्योमन्= वि+अव् (रक्षणे)+मनिन्+सप्तम्येकवचन। मन्त्र में योगिजनों, स्वाध्यायशीलों, और सामान्य जनों के कर्त्तव्यों का वर्णन हुआ है। योगिजन तो हृदय में ध्यानावस्थित होकर आनन्दमात्रा का आस्वादन करते; स्वाध्यायशील यज्ञिय कर्मों और देवताओं के स्वरूपों का तथा अध्यात्मतत्वों का ज्ञान-लाभ करते; तथा सामान्यजन भी वेदोपदेशों के श्रवण द्वारा बलशाली और प्राणप्रद ज्ञानरस का आस्वादन करते हैं। स्वाध्याय का फल निरुक्तकार के शब्दों में निम्नलिखित है—“याज्ञदैवते पुष्पफले, देवताध्यात्मे वा” (१.६.२०)।] [१. मन्त्र में गौ का भी वर्णन प्रतीत होता है। कोश–गौ का मुहाना, लेवा udder। कलशम्= जिसमें दुग्धमात्रा शयन करती है। चतुर्बिलम्= चार स्तन। मधुमतीम्= मधुर दुग्धवाली। मदन्तीम्= प्रसन्न तथा चारे द्वारा तृप्त। अदितिम्= अखण्डनीया, अबध्या। हिंसीः= हिंसा करना। ऊर्जम्= बलदायक दुग्ध। इडा= इळा= गौ (निघं० २।११); अदिति= गौ (निघं० २.११)=अवध्या गौ।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
(चतुर्बिलम्) चार छिद्र या टूंटी वाले (कलशम्) बड़े जलपात्र या कलशे से जिस प्रकार लोग चारों तरफ से टूटी खोलकर जल लेते हैं उसी प्रकार विद्वान् लोग (चतुर्बिलम्) चार बिल या छिद्रों या चार द्वारों वाले (कोशं) ज्ञान, बल और अन्नके खजाने स्वरूप पृथ्वी और (मधुमतीम्) अन्न आदि मधुर पदार्थों से समृद्ध (धेनुम्) समस्त प्रजाको जीवन रस का पान कराने वाली गाय के समान चतुस्तनी (इडाम्) इडा नाम पृथिवी को (दुहन्ति) दोहते हैं, उससे सारवान् पदार्थों का संग्रह करते हैं। हे (अग्ने !) अग्नि के समान ज्ञानवान् ! अग्रणी नेतः ! राजन् ! तू अपने परम, सर्वोत्कृष्ट (व्योमन्) विशेष रक्षा में रखकर (जनेषु) समस्त जनों में (अदितिम्) अखण्डनीय, भोग किये जाने पर कभी खण्डित या विनष्ट न होने वाली, अविनश्वर, सदा ध्रुव, ऊर्जम् अन्न आदि परम रस से सबको (मदन्ती) संतृप्त करती हुई भूमि माता को (मा हिंसीः) कभी विनाश मत कर।
टिप्पणी
(तृ०) ‘घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने’। इति यजु०॥ ‘इमं समुद्र शतधारमुत्सं व्यच्यमानं भुवनस्यमध्ये घृतं दुहानामदितिं जनयाग्ने’। इति तै० आ०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
People milk the treasure trove of life-giving mi lk for their well being all round: It is the Cow with four udders, giving life energy. It is Ida, Eternal Speech of Divinity with knowledge of Dharma, Artha, Kama and Moksha. It is Aditi, Eternal Nature, indivisible, imperishable, indestructible. It is Energy Itself abiding in the highest space, rejoicing among people. O Agni, leading light of life and ruler of the earth, do not kill, do not even hurt the Cow, the Ida, the Aditi, the Energy.
Translation
They milk a receptacle, a jar with four orifices, ida (as) milch-cow rich in honey, in order to well-being; reveling refreshment Aditi among the people, injure thou not, O Agni, in the highest firmament.
Translation
For the sake of their happiness the men milk out milk from the cow good and giving sweet milk like the men of learning milk out knowledge from the head which is like the pitche. having four water-discharging pipes. O man, you (present) in the vast realm of Godly kingdom do not kill the cow pouring down milk and energy upon all the people.
Translation
Just as people draw water from a vesse. with four taps, similarly people derive fourfold benefits from the cow-like earth, producing sweet articles on all the lour quarters of it for the good of humanity O Kina don t ruin this imperishable earth, the source of food and strength satisfying the populace, keeping under your vast regime.
Footnote
The verse may also be translated, taking the 'cow" "Vedic Lore' for the 'earth.' It occurs as Yajur, 13-47.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(कोशम्)रत्नसुवर्णादिसंचयस्थानं यथा (दुहन्ति) दुहिर्द्विकर्मकः। प्रपूरयन्ति (कलशम्)कुम्भसदृशं पयोधरम् (चतुर्बिलम्) चतुश्छिद्रम्। चतुःस्तनम् (इडाम्) अ० ३।१०।६।ईड स्तुतौ-घञ्। ईकारस्य ह्रस्वः, टाप्। इला गोनाम-निघ० २।११। ईड्याम्।स्तुत्याम्। (धेनुम्) अ० ३।१०।१। धेट इच्च। उ० ३।३४। इति धेट् पाने-नु। यद्वा, धिधारणे-तर्पणे च-नु। धेनुर्धयतेर्वा धिनोतेर्वा-निरु० ११।४२। दोग्ध्रीं गाम् (मधुमतीम्) मधुररसदुग्धयुक्ताम् (स्वस्तये) कल्याणाय (ऊर्जम्) बलकरं रसम् (मदन्तीम्) मदयन्तीम्। तोषयन्तीम्। वर्धयन्तीम् (अदितिम्) अ० २।२८।४।कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११६। दीङ् क्षये, दो अवखण्डने-क्तिन्। अदितिरदीनादेवमाता-निरु० ४।२२। अदितिर्गोनाम-निघ० २।११। अदीनामखण्डनीयां गाम् (जनेषु)मनुष्येषु (अग्ने) हे विद्वन् राजन् (मा हिंसीः) मा वधीः मा पीडय (परमे)सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) व्योम्नि। सर्वव्यापके परमात्मनि ॥
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