अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 57
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
44
ये च॑ जी॒वा येच॑ मृ॒ता ये जा॒ता ये च॑ य॒ज्ञियाः॑। तेभ्यो॑ घृ॒तस्य॑ कु॒ल्यैतु॒ मधु॑धाराव्युन्द॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठये । च॒ । जी॒वा: । ये । च॒ । मृ॒ता: । ये । जा॒ता: । ये । च॒ । य॒ज्ञिया॑: । तेभ्य॑: । घृ॒तस्य॑ । कु॒ल्या॑ । ए॒तु॒ । मधु॑ऽधारा । वि॒ऽउ॒द॒न्ती ॥४.५७॥
स्वर रहित मन्त्र
ये च जीवा येच मृता ये जाता ये च यज्ञियाः। तेभ्यो घृतस्य कुल्यैतु मधुधाराव्युन्दती ॥
स्वर रहित पद पाठये । च । जीवा: । ये । च । मृता: । ये । जाता: । ये । च । यज्ञिया: । तेभ्य: । घृतस्य । कुल्या । एतु । मधुऽधारा । विऽउदन्ती ॥४.५७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य को वृद्धि करने का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (जीवाः) जीवतेहुए [उत्साही], (च) और (ये) जो (मृताः) मरे हुए [निरुत्साही], (च) और (ये) जो (जाताः) उत्पन्न हुए [बालक] (च) और (ये) जो (यज्ञियाः) पूजा योग्य [वृद्ध]पुरुष हैं। (तेभ्यः) उन के लिये (घृतस्य) जल की (कुल्या) कुल्या [कृत्रिम नाली] (मधुधारा) मधुर धाराओंवाली, (व्युन्दती) उमड़ती हुई (एतु) चले ॥५७॥
भावार्थ
उत्साही औरनिरुत्साही, बाल और वृद्ध सब पुरुषार्थ करके परस्पर आनन्द भोगें, जैसे लोग मीठेजल की नालियों से खेत, वाटिका आदि सींचकर अन्न, फूल-फल आदि प्राप्तकर सुखी होतेहैं ॥५७॥इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध कुछ भेद से ऊपर आ चुका है-अ० १८।३।७२ ॥
टिप्पणी
५७−(ये)पुरुषाः (च) (जीवाः) जीववन्तः। उत्साहिनः (ये) (च) (मृताः) त्यक्तप्राणाः।निरुत्साहिनः (ये) (जाताः) उत्पन्ना बालकाः (यज्ञियाः) पूजार्हाः। वृद्धाः।अन्यत् पूर्ववत्-अ० १८।३।७२ ॥
विषय
"जीव-मृत-जात-यज्ञिय' पितर
पदार्थ
१. (ये च) = और जो (जीवा:) = जीवनशक्ति से परिपूर्ण पितर हैं, (ये च मृता:) = जिनमें वासना का अंश पूर्णरूप से मृत हो गया है [मृतं वासनाविनाश: एष अस्ति इति], (ये जाता:) = जिन्होंने अपने में शक्तियों का प्रादुर्भाव किया है, (ये च यज्ञिया:) = और जो यज्ञशील हैं, (तेभ्य:) = उन पितरों से (पतस्य) = ज्ञानजल की [घृ दीसौ] (कुल्या) = सरित्-नदी एतु हमें प्राप्त हो। इन पितरों से ज्ञान प्राप्त करते हुए हम भी 'जीवनशक्ति से परिपूर्ण, विनष्ट वासनाओंवाले, विकसित शक्तियोंवाले व यज्ञिय' बनें। २. वह घृतकुल्या हमारे लिए (मधुधारा) = मधु की धारा बने-हमारे जीवनों में माधुर्य को धारण करनेवाली हो तथा (व्युन्दती:) = हमारे हृदयों को भक्तिरस से क्लिन्न करनेवाली हो। ज्ञान हमें मधुर व प्रभुभक्त बनाए।
भावार्थ
पितरों से ज्ञान प्राप्त करके हम मधुरवाणीवाले व भक्तिरस से क्लिन्न हृदयोंवाले बनें।
भाषार्थ
(ये च) जो (जीवाः) जीवित हैं, (ये च) और जो (मृताः) मर गया है, (ये) जो (जाताः) नवदीक्षित हुए हैं, (ये च) और जो पहिले से दीक्षित होकर हमारी पूजा और सत्कार के भाजन हैं, (तेभ्यः) उन सब पितरों के नाम (मधुधारा) मधुरधारा वाली, (व्युन्दती) और उन के खेतों तथा बागीचों को सींचती हुई (घृतस्य कुल्या) जल की छोटी नहर (एतु) प्रवाहित हो।
टिप्पणी
[गृहस्थों का कर्तव्य है कि वे वनस्थ तथा संन्यस्त आश्रमियों के लिये जल की व्यवस्था करें। जीवितों और मृतों के बन्धु-बान्धव मिलकर इस निमित्त श्रमदान तथा धनदान करें। घृतस्य = घृतम् उदकनाम (निघं० १।१२)। कुल्या= कुलेन कुलैर्वा निर्मिता; A small canal; stream (आप्टे)। जाताः= जैसे कि द्विज या द्विजन्मा में "जन्" धातु का प्रयोग है, उसी दृष्टि से "जाताः" में "जन्" का प्रयोग जानना चाहिये, अर्थात् नवदीक्षा द्वारा पुनः नवीन जन्म लिये हुये। प्रसिद्धार्थ में "जाता" का अर्थ "मातृगर्भ से नवजात" करना होगा। इस अर्थ में नवजात बच्चों को भी "पितर" कहना हास्यास्पद होगा।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
(ये च) जो भी (जीवाः) जीवित पुरुष हैं, और (ये च मृताः) जो मर गये हैं और (ये जाताः) जो उत्पन्न हुए, नवजात शिशु हैं, और (ये च) जो (यज्ञियाः) यज्ञ, आत्मा और पर ब्रह्म की उपासना में लगे हैं अथवा (यज्ञियाः=जज्ञियाः) जो उत्पन्न होते हैं (तेभ्यः) उन सब के लिये (घृतस्य कुल्या) घृत और अन्यान्य पुष्टिकारक पदार्थों की धारा और (मधुधारा) मधुर, मधु और आनन्द की धारा (विउन्दती) हृदय को आर्द्र करती हुई (एतु) प्राप्त हो।
टिप्पणी
‘जज्ञिं’ उत्पत्तिं यान्ति इति ‘जज्ञियाः’ इति सायणः। ‘जज्ञियाः’ इति सायणाभिमतः। (द्वि०) ‘जन्त्या’ इति तै० आ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
All those people who are living, who are dead, who are born and who are worthy of homage and company, for all of them, I pray, the stream of ghrta, abundant and overflowing with honey, may run incessantly.
Translation
Both those who are living and those who are dead; those who are born and those who are worshipful — for them let there go a brook of ghee, honey-streamed, overflowing.
Translation
Let the stream of butter mixed with the pour of honey moistening the atmosphere run for those who are living, who are dead, who are born and who are old worshipping men. [N.B. :—Here in the verse 5, 7 the them Mritah has been used for those who are dead. In the case of dead persons the stream of butter etc, run to burn the mortal remains. This has been indicated.]
Translation
May the sweet streams of clarified butter and other invigorating and energizing provisions flow out to those, whoever are living, whoever are dead, whoever are born and whoever are sacrifice-minded.
Footnote
All the four kinds of people, i.e., the living, the dead, the born and the sacrificers need the abundance of clarified butter and other provisions. The dead for the cremation of their bodies according to Vedic rites. The verse refers to a life of prosperity and abundance and not of penury and shortages also see 18.3.72.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५७−(ये)पुरुषाः (च) (जीवाः) जीववन्तः। उत्साहिनः (ये) (च) (मृताः) त्यक्तप्राणाः।निरुत्साहिनः (ये) (जाताः) उत्पन्ना बालकाः (यज्ञियाः) पूजार्हाः। वृद्धाः।अन्यत् पूर्ववत्-अ० १८।३।७२ ॥
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