अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 78
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - आसुरी त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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स्व॒धापि॒तृभ्यः॑ पृथिवि॒षद्भ्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒धा । पि॒तृऽभ्य॑: । पृ॒थि॒वि॒सत्ऽभ्य॑: ॥४.७८॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वधापितृभ्यः पृथिविषद्भ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वधा । पितृऽभ्य: । पृथिविसत्ऽभ्य: ॥४.७८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पितरों के सन्मान का उपदेश।
पदार्थ
(पृथिविषद्भ्यः)पृथिवी की विद्या में गतिवाले (पितृभ्यः) पितरों [पालक ज्ञानियों] को (स्वधा)अन्न हो ॥७८॥
भावार्थ
जो पितर पण्डित लोगपृथिवी अर्थात् राज्यविद्या, भूगर्भविद्या आदि में चतुर हों, जो ज्योतिषी आकाशविद्या अर्थात् सौरमण्डल, तारामण्डल, वायुमण्डल आदि विद्या में दक्ष हों और जोमहापुरुष अन्य व्यवहारों अर्थात् संग्रामविद्या, धर्मशिक्षा आदि विद्या मेंगुणी होवें, सब मनुष्य ऐसे महात्माओं का सदा आदर करते रहें॥७८-८०॥
टिप्पणी
७८−(स्वधा) अन्नम् (पितृभ्यः) पालकज्ञानिभ्यः (पृथिविषद्भ्यः) ङ्यापोः संज्ञाछन्दःसोर्बहुलम्। पा०६।३।६३। इति ह्रस्वः। पृथिवीविद्यायां गतिशीलेभ्यः ॥
विषय
'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक' स्थ पितर
पदार्थ
१. (पृथिविषद्भ्य:) = पृथिवीस्थ अग्नि आदि देवों की विद्या में निपुण (पितृभ्यः) = इन ज्ञानप्रद पितरों के लिए (स्वधा) = हम आत्मधारण के लिए पर्यास अन्न प्राप्त कराएँ। २. इसी प्रकार (अन्तरिक्षसभ्यः) = अन्तरिक्षस्थ वायु आदि देवों की विद्या में निपुण (पितृभ्यः) = ज्ञानप्रद पितरों के लिए (स्वधा:) = अन्न प्राप्त कराया जाए और (दिविषद्भ्यः) = लोकस्थ सूर्यादि देवों के ज्ञाता (पितृभ्य:) = पितरों के लिए (स्वधा) = अन्न हो।
भावार्थ
हम 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोकस्थ''अग्नि, वायु व सूर्य' आदि देवों की विद्या में निपुण ज्ञानप्रदाता पितरों के लिए उचित अन्न प्राप्त कराते हुए उनका आदर करें।
भाषार्थ
(पृथिविषद्भ्यः=पृथिवीषद्भ्यः) पृथिवी अर्थात् तप के द्वारा शरीर की साधना में स्थित (पितृभ्यः) पितरों के लिए (स्वधा) आत्म-धारण-पोषणकारी अन्न होना चाहिए।
टिप्पणी
[पृथिवी=“पृथिवी शरीरम्” (अथर्व० ५.९.७), अतः पृथिवी=शरीर। योगदर्शन का सूत्र है “कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः” (२.४५)। कायसिद्धिः अणिमादयः, तथेन्द्रिसिद्धिः दूराच्छ्रवणदर्शनाद्येति (व्यासभाष्य २.४५), तप द्वारा काय और इन्द्रियों की सिद्धि में संलग्न पितरों को “पृथिवीषद्” कहा है।]
विषय
देवयान और पितृयाण।
भावार्थ
(पृथिविषद्भ्यः पितृभ्यः) पृथिवी पर विराजनेवाले पालक माता पिता आदि पूजनीय पुरुषों को (स्वधा) अन्न आदि पुष्टिकारक पदार्थ प्राप्त हो। (अन्तरिक्षसद्भ्यः स्वधा) अन्तरिक्ष में विराजने वाले पालक पुरुषों का अन्नादि पदार्थ प्राप्त हों। (दिविसद्भ्यः पितृभ्यः स्वधा) द्यौ, आकाश या तेजोमय मोक्ष मार्ग में विराजमान पूज्य गुरु जनों को ‘स्वधा’ अर्थात् आत्म पोषक बल आदि प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Homage of food and reverence, to parents and parental seniors on earth.
Translation
Svadha to the Fathers that sit upon the earth.
Translation
Let food be offered to those elders who live on this earth.
Translation
Nourishing food to the elders, who inhabit the earth.
Footnote
[(78-80) These three verses clearly show that Vedic Rishis not only made this earth their place of residence, but were able to fly higher up in space and create places of living in outer space and even in heavens beyond that. Their offspring was able to keep in contact with them, which is still a dream for the modern scientists and technicians of the Rocket age also see Yajur 2.32.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७८−(स्वधा) अन्नम् (पितृभ्यः) पालकज्ञानिभ्यः (पृथिविषद्भ्यः) ङ्यापोः संज्ञाछन्दःसोर्बहुलम्। पा०६।३।६३। इति ह्रस्वः। पृथिवीविद्यायां गतिशीलेभ्यः ॥
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