Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - छन्दांसि
छन्दः - एकावसाना द्विपदा साम्नी बृहती
सूक्तम् - छन्दासि सूक्त
गा॑य॒त्र्युष्णिग॑नु॒ष्टुब्बृ॑ह॒ती प॒ङ्क्तिस्त्रि॒ष्टुब्जग॑त्यै ॥
स्वर सहित पद पाठगा॒य॒त्री। उ॒ष्णिक्। अ॒नु॒ऽस्तुप्। बृ॒ह॒ती। प॒ङ्क्ति। त्रि॒ऽस्तुप्। जग॑त्यै ॥२१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती पङ्क्तिस्त्रिष्टुब्जगत्यै ॥
स्वर रहित पद पाठगायत्री। उष्णिक्। अनुऽस्तुप्। बृहती। पङ्क्ति। त्रिऽस्तुप्। जगत्यै ॥२१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
विषय - सप्त छन्दोमय जीवन
पदार्थ -
१. हम अपने प्रथमाश्रम में '(गायत्री) = छन्द को अपना आच्छादन बनाएँ। 'गया: प्राणाः तान् तत्रे' प्राणों का रक्षण करनेवाली यह गायत्री है। प्रथमाश्रम का ध्येय 'प्राणशक्ति का रक्षण' ही है। ब्रह्मचारी वीर्यरक्षण द्वारा प्राणशक्ति में कमी नहीं आने देता। २. गृहस्थ में ध्येय ('उष्णिक') = छन्द है। 'उत् स्निह्यति'-यह गृहस्थ उत्कृष्ट स्नेहवाला होता है। इसका स्नेह वासनामय होकर राग में परिवर्तित नहीं हो जाता। वही गृहस्थ श्रेष्ठ है जोकि आसक्ति से बचा रहता है। इसी उद्देश्य से यह '(अनुष्टुप) = एक दिन के बाद दूसरे दिन, अर्थात् सदा [स्तोभ worship] प्रभु का स्तवन करता है। ३. अब वानप्रस्थ बनने पर यह गृहस्थ की संकुचित हृदयता से ऊपर उठने के लिए 'बृहती' छन्द का ध्यान करता है और हृदय को बृहत् [विशाल] बनाता है। (पङ्कति) = पाँचों यज्ञों का विस्तार करता हुआ [पचि विस्तारे] यह 'पाँचों कर्मेन्द्रियों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों प्राणों तथा 'मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय' इस अन्त:करण पंचक' का विकास करता है और (त्रिष्टुप्) = [स्तोभते to stop] 'काम, क्रोध व लोभ' इन तीनों का निरोध करता है। ४. काम, क्रोध, लोभ के निरोध के साथ विजयपूर्ण हो जाती है। अब इस विजेता का जीवन अपने लिए न रहकर (जगत्यै) = जगती के लिए हो जाता है। इसे अपने लिए अब कुछ नहीं करना। यह 'प्राजापत्य यज्ञ' में अपनी आहुति दे देता है। आज इस उन्नति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर यह 'ब्रह्मा' हो गया है।
भावार्थ - ब्रह्मचर्याश्रम में 'गायत्री' हमारा आच्छादन हो। गृहस्थ में 'उष्णिक और अनुष्टुप् । वानप्रस्थ में हमारे आच्छादन 'बृहती, पति व त्रिष्टुप्' हों तथा संन्यास में हम जगती' के लिए हो जाएँ। हम अपने लिए न जी रहे हों। यह व्यक्ति अंग-प्रत्यंग में रसवाला बना रहने से 'अंगिराः' है [अंग-रस]। अगले सूक्त का ऋषि 'अङ्गिराः' ही है -
इस भाष्य को एडिट करें