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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 20/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
वर्म॑ मे॒ द्यावा॑पृथि॒वी वर्माह॒र्वर्म॒ सूर्यः॑। वर्म॑ मे॒ विश्वे॑ दे॒वाः क्र॒न्मा मा॒ प्राप॑त्प्रतीचि॒का ॥
स्वर सहित पद पाठवर्म॑। मे॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। वर्म॑। अहः॑। वर्म॑। सूर्यः॑। वर्म॑। मे॒। विश्वे॑। दे॒वाः। क्र॒न्। मा। मा॒। प्र। आ॒प॒त्। प्र॒ती॒चि॒का ॥२०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वर्म मे द्यावापृथिवी वर्माहर्वर्म सूर्यः। वर्म मे विश्वे देवाः क्रन्मा मा प्रापत्प्रतीचिका ॥
स्वर रहित पद पाठवर्म। मे। द्यावापृथिवी इति। वर्म। अहः। वर्म। सूर्यः। वर्म। मे। विश्वे। देवाः। क्रन्। मा। मा। प्र। आपत्। प्रतीचिका ॥२०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 20; मन्त्र » 4
विषय - मा मा प्रापत् प्रतीचिका
पदार्थ -
१. (मे) = मेरे लिए (द्यावापृथिवी) = द्युलोक और पृथिवीलोक (वर्म) = कवच का काम करें। (अहः) = दिन मेरे लिए (वर्म) = कवच हो। (सूर्य:) = सूर्य (वर्म) = कवच बने। २. (विश्वेदेवाः) = माता, पिता, आचार्य आदि सब देव मे मेरे लिए (वर्म क्रन) = कवच बनें, जिससे (मा) = मुझे (प्रतीचिका) = मेरे विरुद्ध आनेवाली आसुरसेना-आसुरी वृत्तियों की सेना (मा प्रापत्) = मत प्राप्त हो। 'घुलोक, पृथिवीलोक, दिन व सूर्य' आदि की अनुकूलता [रक्षण] मुझे रोगों से बचाएँ। माता आदि का उत्तम शिक्षण वासनाओं से।
भावार्थ - सारा संसार [सब प्राकृतिक देव] मेरा रक्षण करें, जिससे मैं स्वस्थ शरीर रहूँ। माता, पिता व आचार्य आदि सबका रक्षण मुझे वासनामय जीवनवाला न बनने दे। यह नीरोग व निर्वासन पुरुष उन्नत होता हुआ अन्तत: 'ब्रह्मा' बनता है। ब्रह्मा' ही अगले सूक्त का ऋषि है -
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