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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
यानि॑ च॒कार॒ भुव॑नस्य॒ यस्पतिः॑ प्र॒जाप॑तिर्मात॒रिश्वा॑ प्र॒जाभ्यः॑। प्र॒दिशो॒ यानि॑ वस॒ते दिश॑श्च॒ तानि॑ मे॒ वर्मा॑णि बहु॒लानि॑ सन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयानि॑। च॒कार॑। भुव॑नस्य। यः। पतिः॑। प्र॒जाऽप॑तिः। मा॒त॒रिश्वा॑। प्र॒ऽजाभ्यः॑। प्र॒ऽदिशः॑। यानि॑। व॒स॒ते। दिशः॑। च॒ तानि॑। मे॒। वर्मा॑णि। ब॒हु॒लानि॑। स॒न्तु॒ ॥२०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यानि चकार भुवनस्य यस्पतिः प्रजापतिर्मातरिश्वा प्रजाभ्यः। प्रदिशो यानि वसते दिशश्च तानि मे वर्माणि बहुलानि सन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयानि। चकार। भुवनस्य। यः। पतिः। प्रजाऽपतिः। मातरिश्वा। प्रऽजाभ्यः। प्रऽदिशः। यानि। वसते। दिशः। च तानि। मे। वर्माणि। बहुलानि। सन्तु ॥२०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु-प्रदत्त कवच
पदार्थ -
१. (यानि) = जिन रक्षासाधनों को (प्रजाभ्य:) = प्रजाओं के लिए (प्रजापतिः चकार) = प्रजारक्षक प्रभु ने बनाया है, उस प्रभु ने (यः) = जोकि (भुवनस्य पतिः) = सारे ब्रह्माण्ड का स्वामी है तथा (मातरिश्वा) = मातृरूप प्रकृति में गति देनेवाला है [शिव गतौ] २. जिन रक्षासाधनों को (दिश: प्रदिशः च) = दिशाएँ और फैली हुई अवान्तर दिशाएँ (वसते) = धारण करती हैं, (तानि) = वे सब (बहुलानि) = बहुत-से रक्षासाधन मेरे लिए (वर्माणि) = कवच के रूप में (सन्तु) = हों।
भावार्थ - प्रभु ने प्रकृति के सब देवों को हमारे रक्षण के लिए ही उस-उस स्थान में स्थापित किया है। ये सब रक्षा के साधन मेरे लिए कवच का काम दें।
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