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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
अप॒ न्यधुः॒ पौरु॑षेयं व॒धं यमि॑न्द्रा॒ग्नी धा॒ता स॑वि॒ता बृह॒स्पतिः॑। सोमो॑ राजा॒ वरु॑णो अ॒श्विना॑ य॒मः पू॒षास्मान्परि॑ पातु मृ॒त्योः ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑। न्यधुः॑। पौरु॑षेयम्। व॒धम्। यम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। धा॒ता। स॒वि॒ता। बृह॒स्पतिः॑। सोमः॑। राजा॑। वरु॑णः। अ॒श्विना॑। य॒मः। पू॒षा। अ॒स्मान्। परि॑। पा॒तु॒। मृ॒त्योः ॥२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अप न्यधुः पौरुषेयं वधं यमिन्द्राग्नी धाता सविता बृहस्पतिः। सोमो राजा वरुणो अश्विना यमः पूषास्मान्परि पातु मृत्योः ॥
स्वर रहित पद पाठअप। न्यधुः। पौरुषेयम्। वधम्। यम्। इन्द्राग्नी इति। धाता। सविता। बृहस्पतिः। सोमः। राजा। वरुणः। अश्विना। यमः। पूषा। अस्मान्। परि। पातु। मृत्योः ॥२०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
विषय - पौरुषेय वध से परित्राण
पदार्थ -
१. (यम्) = जिस (पौरुषेयम्) = पुरुष-सम्बन्धी (वधम्) = घातक अस्व को (अपन्यधु:) = शत्रुगण छिपाकर रखते हैं। शरीर में रोगकृमिरूप हमारे सपत्न हमारे शरीरों में घातक तत्वों को विविध अंग प्रत्यंगों में छिपाकर स्थापित करनेवाले होते हैं। इन्हीं के कारण हमारी असमय में मृत्यु हो जाती है। (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के तत्त्व उस (मृत्योः) = मृत्यु से (अस्मान्) = हमें (परिपातु) = बचाएँ। इन्द्र व अग्नितत्व का [बल व प्रकाश] का समन्वय होने पर हम रोगरूप वधों से मारे नहीं जाते। २. (धाता) = धारण करनेवाला, (सविता) = उत्पादक, (बृहस्पति:) = ज्ञान का स्वामी, सोमः सौम्य व सोमशक्ति का पुञ्ज, (राजा) = शासक-व्यावस्थापक, (वरुण:) = सब पापों का निवारण करनेवाला, (अश्विना) = प्राणापानशक्ति का अधिष्ठाता, (यमः) = सर्वनियन्ता (पूषा) = पोषक प्रभु हमें मृत्यु से बचाए। प्रभु के ये सब नाम हमें प्रेरणा देते हैं कि हम भी धारणात्मक कार्यों में प्रवृत्त हों, निर्माण में लगे, ज्ञानी बनें, सौम्य हों, जीवन को व्यवस्थित रक्खें, निष बनें, प्राणापान की साधनावाले हों, मन का नियमन करें और शक्तियों का उचित पोषण करें। यही मृत्यु से बचने का मार्ग है।
भावार्थ - मृत्यु से बचने का मार्ग यही है कि हम अपने जीवन में शक्ति व प्रकाश का समन्वय करें। 'धाता' इत्यादि नामों से प्रेरणा लेकर जीवनों को वैसा ही बनाएँ।
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