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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 22/ मन्त्र 10
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - आसुरी जगती सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त

    तृ॒तीये॑भ्यः श॒ङ्खेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तृ॒ती॒येभ्यः॑। श॒ङ्खेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥२२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तृतीयेभ्यः शङ्खेभ्यः स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तृतीयेभ्यः। शङ्खेभ्यः। स्वाहा ॥२२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 22; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. योगांगों के अभ्यास से इन्द्रियों की विषयों के प्रति रुचि कम और कम होती जाती है। इन्द्रियों के प्रति अरुचि ही 'संवेग' है। यह संवेग 'मृदु-मध्य-व तीव्र' इन तीन श्रेणियों में विभक्त है। इनमें मृदु संवेगवाले यहाँ 'प्रथम शंख' कहे गये हैं-वे व्यक्ति जो इन्द्रियों को शान्त करनेवालों की प्रथम श्रेणी में हैं। मध्य संवेगवाले द्वितीय श्रेणी में तथा तीन संवेगवाले तृतीय श्रेणी में। २. इन (प्रथमेभ्यः शंखेभ्यः) = प्रथम श्रेणीवाले शान्तेन्द्रिय पुरुषों के लिए हम (स्वाहा) = प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं, (द्वितीयेभ्यः शंखेभ्य:) = मध्य संवेगवाले द्वितीय श्रेणी के शान्तेन्द्रिय पुरुषों के लिए (स्वाहा) = शुभ शब्द कहते हैं और (तृतीयेभ्यः शंखेभ्यः) = इन तीव्र संवेगवाले शान्तेन्द्रिय पुरुषों के लिए (स्वाहा) = अपने को सौंपते हैं [स्व हा] और उन-जैसा बनने के लिए यत्नशील होते हैं।

    भावार्थ - योगांगानुष्ठान से विषयों से ऊपर उठकर हम क्रमशः अधिकाधिक शान्तेन्द्रिय बनें। ऐसे पुरुषों के साथ ही हमारा उठना-बैठना हो-हम भी उन-जैसा बनने के लिए यत्न करें।

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