अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - दैवी पङ्क्तिः
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
ष॒ष्ठाय॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठष॒ष्ठाय॒। स्वाहा॑ ॥२२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
षष्ठाय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठषष्ठाय। स्वाहा ॥२२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
विषय - योगाङ्गों का अभ्यास आँख
पदार्थ -
१. 'अङ्गिरस' वे व्यक्ति हैं जो गतिशील जीवनवाले होते हुए, ज्ञानप्रधान जीवन बिताते हुए [अगि गतौ] अंग-प्रत्यंग को रसमय बनाये रखते हैं-इनकी लोच-लाचक में कमी नहीं आने देते। इन (आङ्गिरसानाम्) = आंगिरसों के (अद्यै:) = प्रथम-प्रारम्भ में होनेवाले(पञ्च अनुवाकैः) = पाँच बातों के साथ सम्बद्ध जपों के हेतु से-'मैं 'यम-नियम' का पालन करूँगा, मैं 'आसन, प्राणायाम' को अपनाऊँगा और इसप्रकार 'प्रत्याहार'-वाला-इन्द्रियों को विषयों से वापस लानेवाला बनूंगा' इन प्रतिदिन दुहराये जानेवाले विचारों के हेतु से (स्वाहा) = उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता हूँ। प्रभु ही मुझे इन विचारों को स्थूल रूप देने में समर्थ करेंगे। प्रभु-कृपा से ही ये विचार मेरे जीवन में आचार के रूप में परिवर्तित होंगे। २. अब मैं (षष्ठाय) = प्रत्याहार के बाद धारणारूप योग के छठे अंग के लिए प्रभु के प्रति (स्वाहा) = अपना अर्पण करता हूँ। इन्द्रियों को अन्दर ही बाँधने का प्रयत्न करता हूँ। ३. धारणा के बाद (सप्तम् अष्टमाभ्याम्) = सातवें व आठवें-ध्यान व समाधिरूप-योगांगों के लिए (स्वाहा) = आपके प्रति अपने को अर्पित करता हूँ। आपने ही मुझे इन योगांगों में गतिवाला करना है।
भावार्थ - हम योग के प्रथम पाँच अंगों को क्रियान्वित करने के लिए उन्हीं का जप व विचार करें-हमें उनका विस्मरण न हो। अब प्रत्याहार के बाद 'धारणा' के लिए यत्नशील हों। धारणा के बाद 'ध्यान व समाधि' को अपना पाएँ। इन सबके लिए मैं प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता हूँ।
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